Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक १३:टिप्पण
निसीहज्झयणं निशीथभाष्य के अनुसार मेरा वर्ण सुन्दर हो जाए, स्वर मधुर प्राप्त होता है। हो जाए, बल बढ़े, मैं दीर्घायु बनूं, मैं कृश अथवा स्थूल हो पार्श्वस्थ आदि के शब्द-विमर्श हेतु द्रष्टव्य-निसीह. ४/ जाऊं इत्यादि प्रयोजनों से वमन, विरेचन आदि करने वाला भिक्षु २७-३६ का टिप्पण। प्रायश्चित्त का भागी होता है।
१३. सूत्र ५३-६० ११. सूत्र ४२
पार्श्वस्थ, अवसन्न आदि असंविग्न भिक्षु मूलगुणों एवं उत्तरगुणों 'मुझे रोग न हो'-इस भावना से अनागत रोग का प्रतिकर्म में दोष लगाते हैं, काथिक, प्रेक्षणिक आदि सामान्य आचार-विचार करना अरोग प्रतिकर्म है। चौवन अनाचारों में चिकित्सा को अनाचार में दोष लगाते हैं। उनको वन्दना-नमस्कार करने, उनकी प्रशंसा करने माना गया है क्योंकि इससे सूत्रार्थ की हानि होती है।
आदि से दोषों की अनुमोदना आदि का प्रसंग आता है। भाष्यकार निशीथभाष्य के अनुसार मासकल्प पूरा होने के बाद अर्थात् के अनुसार गच्छ परिरक्षा, चिकित्सा, दुर्भिक्ष आदि कारण इसके अमुक काल में मेरे अमुक व्याधि होने वाली है। उस समय उसकी अपवाद हैं। इसी प्रकार उत्तरगुणों में अवसन्न व्यक्ति भी विशिष्ट निरवद्य चिकित्सा उपलब्ध नहीं होने वाली है तथा चिकित्सा के दीर्घ संयम-पर्याय, विशिष्ट शिष्य-संपदा, विशिष्ट कुलोत्पन्नता अभाव में मेरे आवश्यक योगों की हानि संभव है। वर्तमान में उससे आदि गुणों के कारण वन्दनीय एवं सत्करणीय हो जाते हैं। बचने के निरवद्य उपाय उपलब्ध हैं-इत्यादि अनेक गुण-दोषों का शब्द-विमर्श विचार कर सूत्रार्थ-ग्रहण करने में समर्थ तथा गच्छ के लिए विविध काथिक-जो भिक्षु स्वाध्याय आदि करणीय योगों को छोड़कर दृष्टियों से उपकारी भिक्षु अनागत रोग का प्रतिकर्म करे।' देशकथा आदि में रत रहता है अथवा आहार, वस्त्र, पात्र आदि की
आरोग्य-प्रतिकर्म का दूसरा हेतु है-उपेक्षित व्याधि दुश्छेद्य प्राप्ति, पूजा और यशःप्राप्ति के लिए धर्मकथा में रत रहता है, होती है। जिस प्रकार विष-वृक्ष अंकुर अवस्था में नखच्छेद्य होता है, सूत्रपौरुषी, अर्थपौरुषी आदि अन्य करणीय कार्य नहीं करता, वह किन्तु बाद में कुठारच्छेद्य । उसी प्रकार अनागत व्याधि सुच्छेद्य होती काथिक होता है।" है। अतः अल्पतर आयास से उसका प्रतिकर्म कर मुनि सूत्रार्थ- प्रश्न होता है-धर्मकथा स्वाध्याय का ही एक प्रकार है। भव्य अव्यवच्छित्ति का प्रयत्न करे।
प्राणियों को प्रतिबोध देकर धर्मकथी भिक्षु तीर्थ की अव्यवच्छित्ति चिकित्सा-अनाचार के विषय में विस्तार हेतु द्रष्टव्य-दसवे. एवं प्रभावना में निमित्त बनता है, फिर उसका प्रतिषेध क्यों? ३/४ का टिप्पण २६।
आचार्य कहते हैं यह सही है कि धर्मकथा स्वाध्याय का अंग १२. सूत्र ४३-५२
है परन्तु भिक्षु को मात्र धर्मकथा ही नहीं करनी चाहिए। प्रतिलेखना, पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, यथाच्छन्द एवं संसक्त-ये सूत्रार्थ-ग्रहण, आचार्य आदि का वैयावृत्त्य आदि भी यथासमय असंविग्न भिक्षु के पांच प्रकार हैं, क्योंकि ये पुष्ट आलम्बन के करणीय हैं। अतः क्षेत्र, काल एवं पुरुष सापेक्ष धर्मकथा ही करणीय बिना, निष्प्रयोजन मूलगुण एवं उत्तरगुण में दोष लगाते रहते हैं। है। इनकी प्रशंसा करने से सुखशीलता को प्रश्रय मिलता है । वन्दना एवं "प्रेक्षणिक/प्राश्निक-जो भिक्षु नृत्य, नाटक आदि का प्रेक्षण कृतिकर्म करने से शैक्ष भिक्षुओं में उनके प्रति बहुमान एवं भक्ति का __ करता है, लौकिक व्यवहारों में न्यायपूर्वक विभाजन (बंटवारा) भाव पैदा होता है। बार-बार संसर्ग से सुखशीलता की अनुमोदना करने में समर्थ है तथा उसी प्रकार के अन्य न्याय आदि कार्य करता तथा तज्जन्य दोषों का प्रसंग बनता है। अतः पार्श्वस्थ आदि चार है, छंद, निरुक्त, काव्य तथा अन्य लौकिक शास्त्रों का भावार्थ तथा नैत्यिक की वन्दना एवं प्रशंसा करने से लघुचातुर्मासिक तथा बताता है, शकुनरुत आदि कलाएं सिखाता है, वह प्रेक्षणिक कहलाता यथाच्छन्द की वन्दना प्रशंसा करने से गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त । १. निभा. गा. ३३३१
८. निभा. गा. ४३६३ २. निभा. भा. ३, चू.पृ. ३९३-मा मे रोगो भविस्सति त्ति अणागयं ९. वही, गा. ४३६९ चेव रोगपरिकम्मं करेति।
१०. वही, गा. ४३७३, ४३७४ सचूर्णि। ३. दसवे. अ.चू. पृ. ६३-तिगिच्छे सुत्त-अत्थ पलिमंथो।
११. (क) वही, भा. ३ चू. पृ. ३९८-सज्झायादिकरणिज्जे जोगे मोत्तुं ४. निभा. गा. ४३३७ सचूर्णि।
जो देसकहादिकहातो कधेति सो काहितो। ५. वही, गा. ४३३८ सचूर्णि।
(ख) वही, गा. ४३५३ (सचूर्णि) ६. वही, भा. ४ चू.पृ. ९५-पंचविहो असंविग्गो-पासत्थो, ओसन्नो, १२. वही, गा. ४३५४, ४३५५ कुसीलो, संसत्तो, अहाछंदो।
१३. वही, गा. ४३५६-४३५८ ७. वही, गा. ४३६३-४३६६