Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आमुख
पूर्ववर्ती उद्देशक के समान प्रस्तुत उद्देशक का केन्द्रीय तत्त्व भी ब्रह्मचर्य है। छठे उद्देशक के अन्तिम सूत्र में विकृति (विगय) के आहार का प्रतिषेध किया गया। प्रणीत आहार से शरीर की आंतरिक भूषा होती है। इस उद्देशक में मालिका पद के द्वारा बाह्य भूषा का प्रतिषेध प्रज्ञप्त है। इस उद्देशक के प्रारम्भ में मालिका, लोह, आभरण एवं वस्त्र पद के माध्यम से बाह्य विभूषा करने वाले को प्रायश्चित्तार्ह बताकर ब्रह्मचर्य की भावना पुष्ट की गई है। प्रस्तुत प्रसंग में भाष्य एवं चूर्णि में विविध प्रकार की मालाओं, धातुओं, आभूषणों एवं वस्त्रों के विषय में अच्छी जानकारी उपलब्ध होती है। इसे पढ़कर प्राचीन भारत की सभ्यता एवं संस्कृति के विषय में कई नए तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
छठे उद्देशक के समान इस उद्देशक में भी सभी सूत्रों में माउग्गाम एवं मेहुणवडिया इन दोनों शब्दों का अनुवर्तन हुआ है अतः उसके ही समान इस उद्देशक में प्रज्ञप्त पदों के आचरण से ब्रह्मव्रत-विराधना निमित्तक अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। कुत्सित भावों से परस्पर पादपरिकर्म, कायपरिकर्म, व्रण, गण्ड आदि का परिकर्म, दीर्घ रोमराजि का कर्तन, नखों का संस्थापन आदि सारे कार्य भी मैथुन-संज्ञा के अन्तर्गत हैं। इसी प्रकार मैथुन की प्रतिज्ञा से पशु, पक्षी आदि के साथ क्रीड़ा करना, अंगसंचालन, चिकित्सा, मातृग्राम के साथ वस्त्र, पात्र, कंबल आदि तथा अशन, पान आदि का आदान-प्रदान आदि कार्य भी ब्रह्मचर्य के लिए घातक होने से अनुद्घातिक प्रायश्चित्त के योग्य माने गए हैं।
कुत्सित भावों के कारण स्वाध्याय के आदान-प्रदान जैसी निरवद्य प्रवृत्ति भी प्रायश्चित्ताह हो जाती है। इस प्रकार प्रस्तुत उद्देशक के स्वाध्याय-पद में समागत सूत्रद्वयी भावविशुद्धि के महत्त्व का सुन्दर निदर्शन प्रस्तुत करती है।