Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक १० : टिप्पण
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निसीहज्झयणं सकती है। ऐसी स्थिति में अन्य भिक्षुओं को उसका यथोचित पूर्ववर्ती पचास दिनों में विहार न किया जाए। सहयोग करना चाहिए। वैयावृत्य में नियुक्त भिक्षु ग्लान के प्रायोग्य पर्युषणाकल्प पूर्वक निवास के बाद विहार न किया जाए-इसका आहार, पानी, औषध एवं पथ्य के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करे। फिर अर्थ है भाद्रव शुक्ला पंचमी से कार्तिक पूर्णिमा तक विहार न किया भी उसे आहार, औषध आदि प्रायोग्य द्रव्य उपलब्ध न हो सके तो जाए। इस प्रकार इन दो सूत्रों का संयुक्त अभिप्राय है-चातुर्मास में वह आचार्य अथवा अन्य भिक्षुओं से कह दे ताकि वे उसका विहार न किया जाए। सहयोग कर सके। प्रस्तुत सूत्रद्वयी में उपर्युक्त दायित्व का निर्वहन न प्रश्न होता है-चातुर्मास में विहार न किया जाए, इस प्रकार करने वाले भिक्षुओं को प्रायश्चित्तार्ह माना गया है।
एक सूत्र के द्वारा निषेध न कर, दो पृथक् सूत्रों के द्वारा निषेध क्यों निशीथभाष्यकार के अनुसार अनवस्थाप्य एवं परिहार किया गया? जैसा कि कप्पो (बृहत्कल्पसूत्र) में उपलब्ध होता है। तपःप्रायश्चित्त प्राप्त भिक्षु इस सूत्र के अपवाद हैं। इस विषय में इसका समाधान ढूंढने पर सहज ही हमारा ध्यान उस प्राचीन परम्परा भाष्यकार ने वैयावृत्य करने वाले भिक्षु की अर्हता एवं उसके अभाव की ओर खिंच जाता है जिससे यह विदित होता है कि मुनि पर्युषणामें होने वाले दोषों का सविस्तर विवेचन किया है।
कल्प पूर्वक निवास करने के बाद साधारणतः विहार कर ही नहीं शब्द विमर्श
सकते, किन्तु पूर्ववर्ती पचास दिनों में उपयुक्त सामग्री के अभाव में १. असंथरमाणस्स-निर्वाह न होने वाले भिक्षु का। विहार कर सकते हैं। यही कारण है कि ठाणं में भी एतद् विषयक
२. पडितप्पति-तृप्त नहीं करता-उसे भक्तपान आदि लाकर दो सूत्र तथा दोनों के भिन्न-भिन्न पांच आपवादिक कारण उपलब्ध नहीं देता।
होते हैं-प्रथम प्रावृट् में शरीर, उपकरण आदि के अपहरण का भय, ३. पडियाइक्खति–कहता है।
दुर्भिक्ष, किसी के द्वारा गांव से निष्कासन, बाढ़ एवं अनार्यों के १८. सूत्र ३४,३५
उपद्रव के कारण ग्रामानुग्राम परिव्रजन अनुज्ञात है। वर्षावास में वर्षावास तीन प्रकार का माना गया है
पर्युषणाकल्प द्वारा पर्युषित होने के बाद ज्ञान, दर्शन, चारित्र की १. जघन्य-सत्तर दिनों का, संवत्सरी से कार्तिक पूर्णिमा वृद्धि या सुरक्षा, आचार्य या उपाध्याय का कालधर्म को प्राप्त हो तक।
जाना और वर्षाक्षेत्र से बहिःस्थित आचार्य के वैयावृत्य के लिए २. मध्यम-चार मास का, श्रावण कृष्णा एकम से कार्तिक ग्रामानुग्राम परिव्रजन अनुज्ञात है। प्रस्तुत सूत्रद्वयी में इन अपवादों पूर्णिमा तक।
के अभाव में परिव्रजन करने वाले को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त ३. उत्कृष्ट-छह मास का, आषाढ़ से मृगसर तक। दिया गया है।
प्रस्तुत सूत्रद्वयी में प्रथम प्रावृट् तथा वर्षावास में पर्युषणा कल्प __तुलना हेतु द्रष्टव्य-कप्पो १।३५, ३६ का टिप्पण। के द्वारा निवास करने के बाद विहार करने वाले के लिए अनुद्घातिक १९. सूत्र ३६,३७ चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है।
भगवान अजितनाथ से भगवान पार्श्वनाथ तक अर्थात् मध्यम प्रावृट् का अर्थ है-आषाढ़ और श्रावण दो मास अथवा चार बावीस तीर्थंकरों के शासनकाल में अस्थित कल्प होता है। उस मास का वर्षाकाल। आषाढ़ को प्रथम प्रावृट् कहा जाता है। इस समय पर्युषणा का काल नियत नहीं होता। प्रथम एवं चरम तीर्थंकर प्रकार प्रथम प्रावृट् में विहार न किया जाए-इसका अर्थ है आषाढ़ में के शासनकाल में स्थितकल्प होता है। अतः चाहे वर्षा हो या न हो, विहार न किया जाए।
पर्युषणा के नियतकाल में पर्युषित होना अनिवार्य है। प्रावृट् का अर्थ यदि चातुर्मासप्रमाण काल किया जाए तो स्थितकल्प की मर्यादा है कि सामान्यतः भिक्षु को आषाढ़ी प्रथम प्रावृट् में विहार के निषेध का अर्थ होगा-पर्युषणाकल्प से पूर्णिमा तक पर्युषित हो जाना चाहिए-एकत्र प्रवास कर लेना चाहिए। १. निभा. भा. ३, चू.पृ. ११७,११८
७. स्था. वृ.प. २९४-आषाढ़ श्रावणी प्रावृट्.....अथवा चतुर्मास२. वही, पृ. १२०
प्रमाणो वर्षाकालः प्रावृडिति विवक्षितः। ३. वही, गा. ३११६
८. निभा. ३ चू. पृ. १२१-आसाढो पढमपाउसो भण्णति । ४. वही, गा. ३१०५-३११३
९. स्था. वृ. प. २९४,२९५ ५. वही, पृ. ११८-ण पडितप्पति भत्तपाणादिणा।
१०. ठाणं ५/९९,१०० ६. वही, गा. ३१५४-३१५६