Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक १० टिप्पण
शब्द विमर्श
१. उद्घातिक उद्घातिक (लघु) प्रायश्चित स्थान का सेवन करने वाला ।
२. उद्घातिक हेतु उद्घातिक प्रायश्वित्त स्थान का सेवन करने के बाद आलोचना न ले, तब तक ।
३. उद्घातिक संकल्प आलोचना लेने के बाद प्रायश्चित्त में स्थापित करने के दिन तक।
१४. सूत्र २५ - २८
प्रस्तुत चार सूत्रों का सार संक्षेप इस प्रकार है
२१६
१. सूर्योदय हो चुका अथवा सूर्यास्त नहीं हुआ- इस विषय में मुनि असंदिग्ध है, किन्तु बाद में पता चलता है कि सूर्योदय नहीं हुआ अथवा सूर्यास्त हो गया है।
२. सूर्योदय हो चुका अथवा सूर्यास्त नहीं हुआ- इस विषय में मुनि संदिग्ध है, किन्तु बाद में पता चलता है कि सूर्योदय नहीं हुआ अथवा सूर्यास्त हो गया है।
इन दोनों ही भंगों में संस्तृत और असंस्तृत की अपेक्षा से दोदो भंग बन जाते हैं। प्रथम भंग में भिक्षु असंदिग्ध चित्तवृत्ति वाला है, अतः वह अपने उस संकल्प के साथ खाने से शुद्ध है लेकिन जैसे ही उसे ज्ञात होता है कि सूर्योदय नहीं हुआ है अथवा सूर्यास्त हो चुका है तो उसे अपने मुंह में, हाथ में और पात्र में जो कुछ है, उसका परिष्ठापन कर हाथ, मुंह आदि की शोधि कर लेनी चाहिए ।
जो मुनि संदिग्ध चित्तवृत्ति वाला है, वह अपनी संदेहावस्था के कारण प्रायश्चित्त का भागी होता है। जैसे ही उसे ज्ञात हो कि सूर्योदय नहीं हुआ है अथवा सूर्यास्त हो चुका है तो मुंह, हाथ आदि में विद्यमान आहार का परिष्ठापन कर विशोधन कर लेना चाहिए। भगवई में सूर्योदय से पूर्व आहार का ग्रहण कर सूर्योदय के बाद उसके परिभोग को क्षेत्रातिक्रान्त पान भोजन की संज्ञा दी गई
-
है ।
दसवेआलिय में निर्देश है कि मुनि सूर्यास्त होने के बाद अगले दिन सूर्योदय से पूर्व किसी भी प्रकार की आहारसंबंधी अभिलाषा न करे। ओषनियुक्ति में मुनि के लिए प्रातः, मध्याह और सायं तीन १. निभा. ३ चू. पू. ६२ - पायच्छित्तमापण्णस्स जाव मणालोइयं ताव हेऊ भण्णति । आलोइए 'अमुगदिणे तुज्झेयं पच्छित्तं दिज्जिहिति' त्ति संकप्पियं भन्नति ।
२.
भग. ७/२२
३. दसवे. ८ / २८
४. ओनि. २५०, भा. गा. १४८, १४९
५.
(क) निभा.गा. २९१७ - णातिक्कमते आणं धम्मं मेरं व रातिभत्तं वा । (ख) वही, भा. ३ चू.पू. ६८- अतिकम्मणं लंघणं, धम्मो ति सुतचरण धम्मो ।
निसीहज्झयणं
समय आहार का उल्लेख है।
भिक्षु के लिए आहार के समय का निर्देश प्रस्तुत आलापक (सूत्रचतुष्टयी) से फलित होता है, वह यह है कि भिक्षु सूर्योदय के पश्चात् तथा सूर्यास्त से पूर्व विवेकपूर्वक आहार कर सकता है।
प्रस्तुत सूत्रचतुष्टयी में संथडिए और असंथडिए - ये दो पद विमर्शनीय हैं। प्रश्न उपस्थित होता है कि संवडिए और असंथडिए-इन दोनों पदों में निव्वितिगिच्छा समावण्णे तथा वितिगिच्छासमावण्णे के सांयोगिक पदों की संयोजना एवं उत्तरवर्ती सारी प्रक्रिया समान है, वैसी स्थिति में केवल 'संथडिए'- इस विधान से ही काम चल जाता, फिर असंघडिए का विधान क्यों ? क्योंकि असंथदिए के लिए कोई विशेष निर्देश नहीं है।
इस प्रश्न का उत्तर संभवतः यह हो सकता है कि संस्तृत के लिए जो विधान है, असंस्तृत के लिए भी वही है असंस्तृत इस विधान का अपवाद नहीं है। चाहे संस्तृत हो या असंस्तृत, संदिग्ध हो या असंदिग्ध, यदि ज्ञात होने के साथ ही भिक्षु 'विगिंचन और विशोधन' कर लेता है तो विधि का अतिक्रमण नहीं करता। भाष्यकार के अनुसार वह तीर्थकरों की आज्ञा श्रुतधर्म, चारित्रमर्यादा और रात्रिभोजन का अतिक्रमण नहीं करता। निशीथ चूर्णिकार के अनुसार वह धर्म का अतिक्रमण नहीं करता। प्रायश्चित का विधान उस अशन आदि को खानेवाले और देनेवाले के लिए किया गया है। द्रष्टव्य कप्पो ५/६ - ९ व उसका टिप्पण । शब्द विमर्श
,
१. उद्गतवृत्तिक–सूर्योदय के साथ आहार करने वाला। २. अनस्तमितमनःसंकल्प - सूर्यास्त से पूर्व आहार के मानसिक संकल्प वाला। "
३. संस्तृत - समर्थ । यहां संस्तृत पद के दो अर्थ हैं
१. पर्याप्तभोजी - जिसे पर्याप्त भोजन-पानी उपलब्ध है। २. प्रतिदिन भोजी - जो प्रतिदिन आहार करता है। " ४. असंस्तृत असमर्थ जिसे पर्याप्त भक्त पान प्राप्त नहीं है अथवा जो उपवास आदि के कारण छिन्नभक्त है।
५. निर्विचिकित्सासमापन्न - असंदिग्ध मनःस्थिति वाला । "
६.
७.
वही-उग्गते आदिच्चे वित्ती जस्स सो उग्गतवित्ती।
वही - अणत्थमिए आदिच्चे जस्स मणसंकप्पो भवति स भण्गति-अनत्यनियमणसंकप्यो ।
८. वही-संथडिओ णाम हट्ठसमत्थो, तद्दिवसं पज्जत्तभोगी वा-अध्वानप्रतिपन्नो क्षपक - ग्लानो वा न भवतीत्यर्थः ।
९. वही, पृ. ७७-डुमादिणा तवेण कितो असंघडो, गेलपणं या दुब्बलसरीरो अहो, दीद्वाणेण वा पज्जतं अलतो असंधो। १०. वही, पृ. ६८ - वितिगिच्छा विमर्षः मतिविप्लुती संदेह इत्यर्थः । सा णिग्गता वितिगिच्छा जस्स सो णिव्वितिगिच्छो भवति ।