Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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निसीहज्झयणं
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उद्देशक ११: टिप्पण १९. सूत्र ८८-९१
आदिचतुर्विध द्रव्यों को बासी रखकर खाने से जिस प्रकार रात्रिभोजनसाध्वियां सामान्यतः सचेल (सवस्त्र) ही होती हैं। कदाचित् विरमण व्रत की विराधना होती है, लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त उपधि के उपघात अथवा उपधि के अपहरण के कारण अल्पचेल भी प्राप्त होता है उसी प्रकार अनाहार द्रव्यों को परिवासित रखकर खाने हो सकती है। अकेला साधु, चाहे साध्वियां सचेल हों या अचेल से भी रात्रिभोजनविरमण व्रत की विराधना एवं गुरुचातुर्मासिक (अल्पचेल), उनके साथ न रहे क्योंकि साधु-साध्वियों के एकत्र प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। संवास से शंका, कांक्षा, चित्तक्षोभ, ब्रह्मव्रत की अगुप्ति आदि शब्द विमर्श अनेक दोषों की संभावना होती है।
१. बिलं वा लोणं-विडलवण (गोमूत्र में पकाया हुआ नमक) ठाणं में सुदीर्घ अटवी, पृथक् उपाश्रय का अभाव, चोर एवं २. उब्भियं वा लोण-उद्भिजलवण (सामुद्रिक लवण)। दुष्ट युवकों से साध्वियों की सुरक्षा आदि पांच कारणों से साधु- (विस्तार हेतु द्रष्टव्य दसवे. ६/१७ का टिप्पण) साध्वियों के एकत्र-प्रवास को अनुज्ञात माना गया है। इसी प्रकार २१. सूत्र ९३ कोई साधु क्षिप्तचित्त, दृप्तचित्त, उन्मादग्रस्त या यक्षाविष्ट हो जाए ___मरण के दो प्रकार हैं-बालमरण और पंडितमरण। जो चारित्र और अन्य कोई साधु उसे संभालने वाला न हो तो वह अचेल से हीन होता है, वह विषयों, ऋद्धि, रस आदि में आसक्त होकर अवस्था में भी सचेल साध्वियों के साथ रह सकता है। आपवादिक बालमरण को प्राप्त करता है तथा दुर्गति में जाता है। प्रस्तुत सूत्र में परिस्थितियों में साध्वियों ने किसी पुरुष को दीक्षित किया, यदि बीस प्रकार के बालमरणों का नामोल्लेख हुआ है। पर्वत, मरु, भृगु, कोई अन्य निर्ग्रन्थ वहां नहीं है तो वह उन्हीं के पास रहेगा। इस तरु, जल और अग्नि में पतन या प्रस्कन्दन, विषभक्षण, शस्त्रोत्पाटन, प्रकार ठाणं के दोनों सूत्र निशीथसूत्रोक्त सचेल-अचेल विषयक फांसी लेकर, गला घोंटकर आदि अप्राकृतिक विधियों से प्राणचतुर्भंगी के अपवाद हैं।
त्याग करना बालमरण कहलाता है। प्रस्तुत चतुभंगी की व्याख्या का एक नय यह भी हो सकता है यदि मुनि बालमरण की प्रशंसा करता है तो मिथ्यात्व से ग्रस्त कि सचेल भिक्षु को भिन्न सामाचारी वाले सचेल भिक्षुओं तथा लोग सोचते हैं ये मुनि इन गिरिपतन, तरुपतन आदि से मृत्यु की अचेल-जिनकल्पिक भिक्षु के साथ रहना नहीं कल्पता, उसी प्रकार प्रशंसा करते है, इसका अभिप्राय है, ये करणीय हैं। बालमरण दोष अचेल-जिनकल्पिक भिक्षु को सचेल स्थविरकल्पिक भिक्षुओं तथा नहीं है।' इस प्रकार उनके मिथ्यात्व का स्थिरीकरण होता है। परीषह अचेल जिनकल्पिक भिक्षु को अन्य जिनकल्पिक भिक्षुओं के साथ से पराजित शैक्ष बालमरण की ओर उत्प्रेरित होता है। तथा बालमरण रहना नहीं कल्पता, इस प्रकार यह सचेल-अचेल विषयक चतुभंगी से मृत्यु को प्राप्त होने वाले व्यक्ति जिन प्राणियों के ऊपर पड़ते हैं, केवल भिक्षुओं के सन्दर्भ में भी सम्भव है।'
उनके प्राणातिपात का अनुमोदन होता है। अतः बालमरण की २०. सूत्र ९२
प्रशंसा करने वाले भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता प्रस्तुत उद्देशक के सूत्र ७९,८० में आगाढ़ कारण के बिना है। अशन, पान आदि को परिवासित रखने तथा उसका स्वल्पमात्र भी शब्द विमर्श उपभोग करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। प्रश्न होता है कि आहार को। १.गिरि, मरु और भृगु-जिस पर्वत पर चढ़ने पर नीचे प्रपात परिवासित रखने में दोष है तो क्या नमक, सोंठ आदि अनाहार द्रव्यों स्थान दिखाई दे वह गिरि तथा जहां से प्रपात-स्थान दिखाई न दे को परिवासित रखा जा सकता है?" आचार्य कहते हैं-अनाहार वह मरु कहलाता है। नदी, तटी, विद्युत्खात-प्रदेश अथवा कूप द्रव्यों को परिवासित रखने से भी सन्निधि-संचय सम्बन्धी दोषों की भृगु कहलाता है। संभावना रहती है। उसमें भी आत्मविराधना एवं संयमविराधना २. पतन और प्रस्कन्दन-स्थान पर स्थित व्यक्ति का ऊपर संभव है अतः सामान्यतः पीपल, पीपल का चूर्ण, बिडलवण आदि उछल कर नीचे गिरना पतन या प्रपतन तथा कुछ दूर दौड़कर गिरना अनाहार द्रव्यों को भी परिवासित रखना विहित नहीं। अशन, पान । प्रस्कन्दन कहलाता है। पीपल, वट आदि वृक्षों की शाखाओं पर
१. निभा. गा. ३७७७, ३७७८, ३७८० २. ठाणं ५/१०७ ३. वही ५/१०८ ४. निशी. (सं. व्या.) पृ. २७७, २७८ (सू. ८७-९० की चूर्णि) ५. निभा.३ चू. पृ. २८९ ६. वही, गा. ३७९५, ३७९६ सचूर्णि। ७. भग. २/४९-दुविहे मरणे पण्णत्ते-बालमरणे य पंडितमरणे य।
८. निभा. गा. ३८०७-सचूर्णि ९. वही, भा. ३ चू. पृ. २९१-जत्थ पव्वए आरूढेहिं अहो पवाय
ठाणं दीसइ सो गिरी भण्णइ । अदिस्समाणे मरू। १०. वही-भिगू णदितडी आदिसहातो विज्जूक्खायं, अगडो वा भन्नइ। ११. वही, गा. ३८०३-पडणं तु उप्पतित्ता, पक्खंदण धाविळण जं
पडति।