Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक १२ : टिप्पण
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निसीहज्झयणं
९. सूत्र ११,१२
१. सूक्ष्म चिकित्सा स्वयं रोग का प्रतिकार न करते हुए __गृही-अमत्र चौवन अनाचारों की सूचि में ग्यारहवां अनाचार गृहस्थ से यह कहना कि मैं वैद्य नहीं हूं। यह अर्थ- पद है अर्थात् है। मुनि अपनी नेश्राय के पात्र में ही आहार का ग्रहण एवं भोग प्रकारान्तर से इससे यह अर्थ ध्वनित होता है कि वैद्य को दिखाओ करता है तथा अपनी नेश्राय के वस्त्रों को ही पहनता है। गृहस्थ के अथवा गृहस्थ के पूछने पर कहना मेरे यह रोग अमुक औषधि से वस्त्र अथवा पात्र को प्रातिहारिक रूप में ग्रहण कर उपयोग करने पर ठीक हुआ था। पुरःकर्म, पश्चात्कर्म आदि दोष संभव हैं। यदि कोई उन्हें चुरा ले २. बादर चिकित्सा-रोग-प्रतिकार हेतु औषध आदि का अथवा वस्त्र फट जाए, पात्र टूट जाए तो अधिकरण आदि दोष भी कथन करना।२ गृहस्थ को हिंसा का त्याग नहीं होता। रोगी अवस्था संभव हैं। अतः मुनि के लिए निर्देश है कि वह गृहस्थ के पात्र में वह जिन सावध कार्यों में अव्यापृत रहता है, स्वस्थ होने पर वह कटोरी, थाली आदि में कभी भी अशन, पान न करे तथा अचेल हो उनमें और अधिक व्याप्त हो सकता है। चिकित्सा के लिए जिन जाए, तब भी गृहस्थ के वस्त्र को न पहने। प्रस्तुत सूत्रद्वयी में इन्हीं कन्दमूल, सचित्त जल, अग्नि आदि का आरम्भ करेगा, उनमें भी दोनों निर्देशों के अतिक्रमण का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है।
भिक्षु निमित्त बनेगा। अतः गृहस्थ की चिकित्सा करना, वैद्यकविस्तार हेतु द्रष्टव्य-दसवे. ३/३ का टिप्पण (पृ. ६०,६१) वृत्ति से आहार, सम्मान आदि प्राप्त करना अनाचार है। गृहस्थ की १०. सूत्र १३
बादर चिकित्सा करने वाले भिक्षु को लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त चूर्णिकार के अनुसार गृही-निषद्या का अर्थ है-पलंग आदि, प्राप्त होता है।३ उन पर बैठने वाले को चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। निशीथभाष्य १२. सूत्र १५ में गृही-निषद्या के जो दोष बताए गए हैं, वे दसवेआलियं में गृहान्तर साधु को भिक्षा देने के निमित्त सजीव जल से हाथ, कड़छी निषद्या के विषय में बताए गए हैं। उत्तरज्झयणाणि 'गिहिनिसेज्जं च आदि धोना अथवा अन्य किसी प्रकार का आरम्भ-हिंसा करना वाहेइ' का अर्थ 'गृहस्थ की शय्या पर बैठता है'-किया गया है। पूर्वकर्म दोष है।४ मुनि के लिए निर्देश है कि पुराकर्म कृत हाथ,
आसंदी, पल्यंक आदि गृहस्थ के आसनों अथवा शय्याओं ____ कड़छी और बर्तन से भिक्षा देती हुई स्त्री को मुनि प्रतिषेध करे-इस का प्रयोग अहिंसा महाव्रत की सुरक्षा की दृष्टि से निषिद्ध है क्योंकि प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता। यह एषणा सम्बन्धी (दायक) इनमें गंभीर छिद्र होने से ये दुष्प्रतिलेख्य होते हैं। गृहान्तर-निषद्या दोष है। इसमें अप्काय का समारम्भ होता है, अतः यह प्रायश्चित्तार्ह का प्रयोग ब्रह्मचर्यगुप्ति हेतु तथा शंका आदि अन्य दोषों के निवारण है। की दृष्टि से निषिद्ध है। आसंदी, पल्यंक तथा गृहान्तर निषद्या ये १३. सूत्र १६ तीनों अनाचार हैं। प्रस्तुत सूत्र को इन तीनों का प्रायश्चित्त सूत्र भी पूर्वकर्म के समान पश्चात्कर्म दोष का सम्बन्ध भी अप्काय से माना जा सकता है।
है। भिक्षा देने के पश्चात् उस पात्र, हाथ या कड़छी आदि को धोना विस्तार हेतु द्रष्टव्य-दसवे. ३/५, पृ. ७५-७८ ।
पड़े, वहां पश्चात्कर्म दोष होता है। १६ ११. सूत्र १४
प्रस्तुत सूत्र में 'सीओदगपरिभोईण' पद का प्रयोग किया गया चिकित्सा का अर्थ है-वमन, विरेचन, अभ्यंग, पान आदि के है। निशीथभाष्य एवं चूर्णि के अनुसार यह पात्र आदि का विशेषण द्वारा रोग का प्रतिकार। उसके दो प्रकार हैं
बनता है-जिस अमत्र (पात्र) से सचित्त जल का परिभोग किया १. दसवे. अध्य. ३ का आमुख
१०. निभा. भा. ३ चू. पृ. ३३१-तिगिच्छा णाम रोगप्रतिकारः, वमन२. निभा. गा. ४०४४, ४०४७
विरेचन-अभ्यंगपानादिभिः । ३. सूय. १/९/२०
११. वही-सुहुमतिगिच्छा णाम णाहं वेज्जो अट्ठापदं देति । परमत्ते अन्नपाणं, ण भुंजेज्ज कयाइ वि।
अहवा-भणाति मम एरिसो रोगो अमुगेण पण्णत्तो। परवत्थं अचेलोऽवि, तं विज्जं परिजाणिया।।
१२. वही, पृ. ३३२-चउप्यादं वा तेगिच्छं करेइ। निभा. ३ चू.पृ. ३३०-गिहिणिसे ज्जा पलियंकादी, तत्थ १३. वही, गा. ४०५५ की चूर्णि णिसीदंतस्स चउलहुँ।
१४. वही, गा. ४०६३(क) वही, गा. ४०४८
हत्थं वा मत्तं वा, पुव्वं सीओदएण जो धोवे। (ख) दसवे. ६/५७-५९
समणट्ठयाए दाता, तं पुरकम्मं वियाणाहि ।। उत्तर. १७/१९
१५. दसवे. ५/१/३२ ७. दसवे. ६/५५
१६. निभा. भा. ३ चू. पृ. ३४३-भिक्खप्पयाणोवलित्तं पच्छा धुवंतस्स ८. वही, ६/५८
पच्छाकम्म। ९. वही, ३/५