Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक १२ : टिप्पण
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निसीहज्झयणं ३. गृद्धि-दोषयुक्त जानने पर भी उस वस्तु के प्रति अविरति पौरुषी में, उस क्षेत्र में (दो कोस की सीमा के भीतर भीतर) उसका का भाव।
परिभोग कर ले। प्रथम प्रहर में गृहीत आहार को चरम प्रहर तक ४. अध्युपपाद-अत्यासक्ति-अत्यधिक गृद्धि अथवा मूर्छा रखना उस कालसीमा का अतिक्रमण है। इससे संचय का दोष का भाव।
लगता है। अशन, पान आदि को रखने में यतना न रखी जाए तो संग, राग, मूर्छा, गृद्धि और अध्युपपन्नता की अर्थ-परम्परा उसके संसक्त होने की भी संभावना रहती है। जीवयुक्त (संसक्त) विषयक तुलना हेतु द्रष्टव्य-ठाणं ५/६-१० का टिप्पण। पदार्थ खाने के काम नहीं आता और उसकी परिष्ठापना में भी १६. सूत्र ३१,३२
जीवविराधना को टालना कठिन होता है। भाष्यकार ने प्रस्तुत प्रसंग प्रस्तुत सूत्रद्वयी में आहार के सन्दर्भ में कालसीमा तथा में अन्य संभावित दोषों का भी उल्लेख किया है। मार्गसीमा के अतिक्रमण का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। कप्पो जिस गांव नगर आदि में अशन, पान को ग्रहण किया जाए, (बृहत्कल्पसूत्र) में उसके अतिक्रमण का निषेध प्रज्ञप्त है। उससे आधा योजन या उससे अधिक दूरी पर जाकर उसका उपभोग व्याख्याप्रज्ञप्ति में भी इनके संवादी पाठ मिलते हैं।
किया जाए, तब भी आज्ञाभंग, अनवस्था आदि अनेक दोष आते भगवई में पान-भोजन के प्रसंग में अतिक्रमण के चार प्रकार हैं। अधिक भार लेकर चलने से ईयासमिति का सम्यक् शोधन नहीं बतलाए गए हैं
होता, अशन अथवा पानक के गिरने से पृथिवीकाय आदि जीवों की १. क्षेत्रातिक्रान्त-सूर्य उगने से पूर्व आहार ग्रहण कर सूर्योदय विराधना भी संभव है, चोरों के द्वारा अपहरण, पात्रभंग आदि अन्य के पश्चात् खाना।
दोष भी संभव हैं। २. कालातिक्रान्त-प्रथम प्रहर में गृहीत आहार को पश्चिम प्रस्तुत पद (सूत्र ३२) का शीर्षक खेत्तातिक्कंत पदं दिया प्रहर में खाना।
हुआ है। चूंकि यह पाठ क्षेत्र सम्बन्धी मर्यादा के अतिक्रमण के ३. मार्गातिक्रान्त–अर्धयोजन (दो कोश) से अधिक दूरी सन्दर्भ में है, इसलिए संगत भी हो सकता है परन्तु भगवई ७/२४ में तक आहार ले जाकर उसे खाना।
'मग्गातिकंत पाणभोयण' की परिभाषा यह की गई है४. प्रमाणातिक्रान्त–आहार का सामान्य अनुपात है-बत्तीस जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासुएसणिज्जं असण-पाणकवल। उस परिमाण से अधिक खाना।'
खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता परं अद्धजोयणमेराए वीइक्कमावेत्ता आहार____ निर्ग्रन्थ एवं निर्गन्थी को प्रथम प्रहर में गृहीत अशन, पान -माहारेइ, एस णं गोयमा! मग्गातिक्कंते पाणभोयणे। आदि को अन्तिम प्रहर तक रखना नहीं कल्पता । कदाचित् कुछ रह चूंकि आगम के मूलपाठ में अर्धयोजन की मर्यादा के अतिक्रमण जाए तो प्रासुक स्थंडिल पर उसका परिष्ठापन कर दे। यह निषेध को मार्गातिक्रान्त कहा गया है। अतः प्रस्तुत सूत्र का शीर्षक संचय आदि दोषों की दृष्टि से प्रज्ञप्त है। इसी प्रकार वह अशन, 'मग्गातिक्कंत-पदं' अधिक संगत प्रतीत होता है इसलिए हमने यहां पान आदि को दो कोश की मर्यादा से आगे न ले जाए। निशीथ यही शीर्षक रखा है। चूर्णिकार ने इन्हें क्रमशः काल एवं क्षेत्र का अतिक्रमण माना है।' तुलना हेतु द्रष्टव्य-भगवई २, ७/२४ का भाष्य पृ. ३३६ भाष्य एवं चूर्णि में इनसे प्राप्त होने वाले दोषों एवं अपवादों की तथा कप्पो ४/१२,१३ का टिप्पण। विस्तृत चर्चा की है।
शब्द विमर्श साधना के लिए शरीर अपेक्षित है तथा शरीर के लिए आहार १. उवातिणावेति-अतिक्रमण करता है। आगे ले जाता आवश्यक है। मुनि को आहार का ग्रहण एवं परिभोग अनुज्ञात काल में करना चाहिए। वह असंग्रही होता है। अतः उसके लिए सर्वोत्तम २. मेरा-मर्यादा, सीमा। विकल्प है-जिस पौरुषी में, जिस क्षेत्र में आहार ग्रहण करे, उसी
१. निभा. ३, चू. पृ. ३५०-सज्जणादी पदा एगट्ठिया। अहवा
आसेवणभावे सज्जणता, मणसा पीतिगमणं रज्जणता, सदोसुवलद्धे
वि अविरमो गेधी, अगम्मगमणासेवणे वि अज्जुववातो। २. कप्पो ४/१२,१३ ३. भग. ७/२४ ४. निभा. गा. ४१४२-४१४४ ५. वही, भा. ३ चू. पृ. ३५१,३५५
६. वही, गा. ४१४१-४१९५ (सचूर्णि) ७. वही, गा. ४१४२-४१४६ व उनकी चूर्णि। ८. वही, गा, ४१६९ ९. वही, भा. ३ चू.पृ. ३५१-कालप्पमाणं अभिहितं जं तस्स
अतिक्कमणं तं उवातिणावितं भन्नति । १०. वही, पृ. ३५५-खेत्तप्पमाणाओ परेण असणाइ संकामेइ।