Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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निसीहज्झयणं
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उद्देशक ११: टिप्पण १३. सूत्र ७५-७८
तुलना हेतु द्रष्टव्य-कप्पो ५/३७ का टिप्पण। प्रस्तुत आलापक में दिन एवं रात्रि में आहार के ग्रहण एवं शब्द विमर्श भोग विषयक चतुर्भंगी निर्दिष्ट है
१. अनागाढ़-'आगाढ' शब्द की व्याख्या चार निक्षेपों से १. दिन में ग्रहण, दिन में भोग-दिन में गृहीत अशन, पान की जा सकती हैआदि को परिवासित रखकर दूसरे दिन खाना।'
• द्रव्यागाढ-दुर्लभ द्रव्य, यथा-शतपाक, सहस्रपाक तैल २. दिन में ग्रहण, रात्रि में भोग-शाम को सूर्यास्त से पूर्व अथवा घी आदि। अपराह्न संखड़ी आदि में गृहीत अशन, पान आदि को रात्रि में •क्षेत्रागाढ-अटवी-प्रपन्न अवस्था में होने वाला असंस्तरण (सूर्यास्त के बाद) खाना।
(अनिर्वाह) आदि। ३. रात्रि में ग्रहण, दिन में भोग-विचारभूमि आदि के लिए • कालागाढ-दुर्भिक्ष अथवा अवमकोल आदि। निर्गत भिक्षु द्वारा सूर्योदय से पूर्व नैवेद्य, पूजा आदि में उपहृत द्रव्यों • भावागाढ-इसके दो प्रकार हैं-लानागाढ और परिज्ञागाढ । आदि का ग्रहण एवं सूर्योदय के पश्चात् उसका भोग।'
आगाढ रोग अथवा आतंक जिसमें तत्काल चिकित्सा एवं पथ्य ४. रात्रि में ग्रहण, रात्रि में भोग-बल, वर्ण आदि की वृद्धि के आवश्यक हो, वह ग्लानागाढ़ तथा अनशनस्थ भिक्षु की असमाधि लिए अथवा ज्ञातिजनों के द्वारा साग्रह निमंत्रण पर ज्ञातिकुलों आदि अवस्था परिज्ञाभावागाढ है। में जाकर रात्रि में अशनादि का ग्रहण एवं रात्रि में ही भोग।'
प्रस्तुत प्रसंग में 'अनागाढ ग्लान्य' ग्राह्य है। वह रोग, जिसमें इनमें प्रथम भंग में परिवासित दोष एवं रात्रि में संचय सम्बन्धी दोष एवं गुण के अल्पबहुत्व के आधार पर चिकित्सा आदि में क्रम दोष होते हैं। शेष तीनों भंगों में एषणा आदि से संबद्ध अनेक दोष, किया जा सके, जो कालक्षेप को सहन कर सके, वह अनागाढ रोग संयमविराधना एवं आत्मविराधना संभव है। चारों ही भंगों में होता है। रात्रिभोजन व्रत का अतिक्रमण होता है। अतः ये रात्रिभोजन के २. त्वक्प्रमाण-तिल-तुष का त्रिभागमात्र । समान ही प्रायश्चित्ताह हैं।
३. भूतिप्रमाण-संदशक (अंगुष्ठ एवं प्रदेशिनी अंगुली को तुलना हेतु द्रष्टव्य भगवई ७/२४ का भाष्य।
मिलाने पर बनने वाली चिमटी) में आए उतना भस्म आदि द्रव्य।" १४. सूत्र ७९,८०
४. बिन्दुप्रमाण-जल आदि द्रव पदार्थों की एक बूंद । १२ परिवासित अशन, पान आदि का अल्पतम भोग भी रात्रिभोजन १५. सूत्र ८१ विरमण व्रत का अतिचार है। इसमें संचय संबंधी दोषों के साथ जहां भोज का आयोजन होता है, उस जनाकीर्ण स्थान में आत्मविराधना एवं संयमविराधना की भी संभावना रहती है। अतः । गोचरान के लिए जाने से संयमविराधना, आत्मविराधना, अत्यन्त आगाढ़ कारण के बिना अशन, पान आदि को परिवासित भाजनविराधना आदि अनेक दोष होते हैं, स्त्रियों को प्रमत्त एवं रखना तथा परिवासित अशन का तिलतुष प्रमाण एवं पानक आदिः विह्वल अवस्था में देखने से स्मृतिजन्य एवं कुतूहलजन्य दोष भी का बिन्दु प्रमाण भी भोग करना निषिद्ध है।
संभव हैं।" प्रस्तुत सूत्र में मांसादिक एवं मत्स्यादिक भोज कप्पो (बृहत्कल्प सूत्र) में परिवासित आहार को त्वक्प्रमाण, का उल्लेख है, उनमें जाने से उड्डाह एवं प्रवचन की अप्रभावना भूतिप्रमाण एवं बिन्दुप्रमाण भी खाने का निषेध किया गया है। वहां । होती है। अतः विविध प्रकार के भोज के आयोजन में भोजन के भी आगाढ़ रोग एवं आतंक का अपवाद प्रज्ञप्त है। प्रस्तुत सूत्रद्वयी। समय वहां जाना अथवा उस आशा से अन्यत्र रात्रि बिताना मुनि के में अनागाढ़ कारण में अशन, पान को परिवासित रखने और उसे लिए निषिद्ध है। इससे आज्ञाभंग, अनवस्था आदि अनेक दोष संभव खाने का गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। १. निभा. भा. ३ चू. पृ. २०५-दिया घेत्तुं णिसि संवासेतुं तं बितियदिणे ७. कप्यो ५३७ भुंजमाणस्स पढमभंगो भवति।
८. निभा. गा. ३४७३ सचूर्णि। २. वही, पृ. २०७-अवरणहसंखडीए दिया गहियं रायो भुत्तं बितियभंगो। ९. वही, भा. ३ चू. पृ. ११८-आगाढे खिप्पं करणं, अणागाढे ३. वही-अणुदिते सूरिये बाहिं वियारभूमिं गयस्स देव-उवहार-बलि- कमकरणं। णिमंत्रणे रातो गहिते दिया भुत्ते ततियभंगो।
१०. वही, पृ. १५७-तये ति तिलतुसतिभागमेत्तं । ४. वही-सण्णायगकुलगताणं सण्णायगवयणेण अप्पणो बलत्वताते ११. वही-भूतिरिति यत् प्रमाणमंगुष्ठ-प्रदेशिनीसंदंसकेन भस्म गृह्यते। रातो घेत्तुं रातो भुंजंताण चरिमभंगो।
१२. वही-पानके बिन्दुमात्रमपि। ५. (क) वही, गा. ३३९७-चउभंगो रातिभोयणे।
१३. वही, गा. ३४८६ सचूर्णि। (ख) वही, भा. ३ चू. पृ. २०५,२०६
१४. वही, गा. ३४८० ६. वही, गा. ३४७४, ३४७५ सचूर्णि।