Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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निसीहज्झयणं
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उद्देशक ११ : टिप्पण दुर्भिक्ष आदि आपदाओं के कारण जाना शक्य न हो अथवा वह आलापक अन्यत्र भी प्रज्ञप्त है। यहां इसका प्ररूपण गृहस्थ अथवा स्वयं इन आपदाओं से ग्रस्त होने के कारण जाने में असमर्थ हो, अन्यतीर्थिक के परिकर्म के संदर्भ में हुआ है। भिक्षु यदि गृहस्थ मार्गवर्ती क्षेत्र इन उपद्रवों से युक्त हों, राजद्वेष अथवा म्लेच्छभय अथवा अन्यतीर्थिक का वैयावृत्य करता है तो मिथ्यात्व का हो, मुनि ग्लान-वैयावृत्य में लगा हुआ होने से वहां जान सके, वहां स्थिरीकरण होता है। शैक्ष आदि के वहां जाने तथा परिचय–प्रसंग जाने से शैक्ष के अपहरण की संभावना हो, चारित्रदोष अथवा आदि से सम्बद्ध दोषों की संभावना रहती है। प्रवचन की अप्रभावना एषणा-दोषों कारण वहां मुनि स्वयं न जा सके, श्वापद आदि का होती है। अतः भिक्षु को गृहस्थ तथा अन्यतीर्थिक का पादपरिकर्म, भय हो तो भाष्यकार के अनुसार भिक्षु पश्चात्कृत या अणुव्रती कायपरिकर्म आदि वैयावृत्य नहीं करना चाहिए। श्रावक आदि से यतनापूर्वक कहकर पात्र मंगवा सकता है।
७.सूत्र ६५,६६ यदि सभी भिक्षु गीतार्थ हों तो गृहस्थ द्वारा आनीत पात्र को पिशाच, स्तेन, दुष्ट हाथी आदि को देखकर भयभीत होना ले लें। यदि सभी गीतार्थ न हों तो एक बार उसे प्रतिषेध कर दे और अथवा उनकी कल्पना मात्र से, अपने नकारात्मक चिन्तन के कारण बाद में यतनापूर्वक ले ले।
भयभीत होना स्वयं को डराना है तथा इनकी उपस्थिति का कथन ५.सूत्र ९,१०
कर अथवा काल्पनिक वार्ता से दूसरे को डराना दूसरे को भयभीत धर्म के दो प्रकार प्रज्ञप्त है-श्रुतधर्म और चारित्रधर्म। श्रुतधर्म करना है। भय मोहनीय कर्म की उत्तरप्रकृति है तथा अशुभ कर्मबन्धन के प्रकार हैं-सूत्र और अर्थ । यह पंचविध (वाचना आदि) स्वाध्याय ____का हेतु है। इससे व्यक्ति क्षिप्तचित्त हो सकता है। भय की उदीरणा रूप है। अथवा आचारांग सूत्र से लेकर पूर्वगत पर्यन्त समस्त से आत्मविराधना एवं संयमविराधना भी संभव है। अतः भिक्षु न श्रुतधर्म है।
स्वयं भयभीत हो और न दूसरे को भयभीत करे। चारित्रधर्म के दो प्रकार हैं-अगार और अनगार। समस्त ८. सूत्र ६७,६८ मूलगुण एवं उत्तरगुण चारित्रधर्म है।
विद्या, मंत्र आदि का प्रयोग करके अथवा किसी भी प्रकार
की तपोलब्धि के द्वारा स्वयं को अथवा दूसरे को विस्मित करना बार-बार कथन की क्या अपेक्षा है? श्रमण जीवन वैराग्य-प्रधान भिक्षु के लिए वर्जनीय है। सद्भूत विद्या एवं मंत्र का प्रयोग करना होता है, उसमें ज्योतिष, गणित आदि के ज्ञान से क्या प्रयोजन? दृप्तचित्तता का हेतु बन सकता है। इनसे आजीववृत्तिता नामक जहां जीवोत्पत्ति की संभावना न हो, वहां दो बार प्रतिलेखना अनपेक्षित अनाचार को पोषण मिलता है। असद्भूत विधियों से दूसरे को है-इत्यादि कहना धर्म का अवर्णवाद है, आशातना है।" विस्मित करने का प्रयत्न माया एवं मृषावाद है। १२ अतः विस्मित
हिंसा, मृषा आदि के समर्थक पापश्रुतों, चरक, परिव्राजक । होने एवं विस्मित करने की प्रवृत्ति को भिक्षु के लिए प्रायश्चित्ताह आदि के पंचाग्नि तप आदि व्रतों की प्रशंसा अथवा अठारह माना गया है। पापमय प्रवृत्तियों में से किसी का उपबृंहण करना अधर्म का वर्णवाद ९. सूत्र ६९,७०
जो द्रव्य, क्षेत्र आदि भाव जिस रूप में नियत है, उससे भिन्न धर्म का अवर्णवाद एवं अधर्म का वर्णवाद करने से मिथ्यात्व रूप में चिन्तन करना अथवा क्रिया से विपरीत करना स्वयं का का पोषण होता है, पापकारी प्रवृत्तियों की प्रेरणा एवं अनुमोदना विपर्यास है तथा उसे विपरीत अथवा भिन्न रूप में प्रतिपादित करना होती हैं। ये कर्म-बन्धन के हेतु हैं। अतः इन्हें प्रायश्चित्तार्ह माना दूसरे को विपर्यस्त बनाना है। जैसे कोई व्यक्ति दाडिम को नहीं गया है।
जानता, वह दाडिम के विषय में पूछता है तो उसे आम्रातक बता ६. सूत्र ११-६४
देना अथवा स्वयं को रोगी अथवा तपस्वी न होने पर भी रोगी प्रस्तुत आगम में पाद-परिकर्म से शीर्षद्वारिका पर्यन्त सम्पूर्ण अथवा तपस्वी बताना आदि। भाष्यकार ने विपर्यास के द्रव्य, क्षेत्र,
१. निभा. गा. ३२९६ सचूर्णि। २. वही, गा. ३२९७ सचूर्णि। ३. वही, गा. ३२९९-दुविहो य होइ धम्मो, सुयधम्मो खलु चरित्तधम्मो
य। ४. वही, गा. ३२९९,३३०० ५. वही, गा. ३३०० ६. वही, भा. ३ चू. पृ. १७७-एक्केक्को दुविहो मूलुत्तरगुणेसु ।
७. वही, गा. ३२०७, ३२०८ सचूर्णि ८. वही, भा. ३ चू.पृ. १७९-(सू. १० की चूर्णि) ९. वही, गा. ३३११ सचूर्णि। १०. वही, गा. ३३१२ सचूर्णि। ११. वही, गा. ३३१७-३३२० सचूर्णि १२. विस्तार हेतु द्रष्टव्य-वही, गा. ३३३७-३३४१ १३. वही, गा. ३३४५