Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक ११:टिप्पण
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निसीहज्झयणं
काल और भाव-चार भेद किए हैं।
स्वयं अथवा दूसरे को विपर्यस्त करने से बादरमृषावाद तथा माया का दोष लगता है, यथार्थ का अपलाप होता है तथा दूसरे को यथार्थ का ज्ञान होने पर उसके साथ कलह की संभावना रहती है। अतः ये दोनों प्रवृत्तियां प्रायश्चित्ताह हैं। १०. सूत्र ७१ ____ मुखवर्ण का शाब्दिक अर्थ है-प्रशंसा करना, श्लाघा करना। चूर्णिकार के अनुसार मुख का अर्थ है प्रवेश। निक्षेप-विधि से व्याख्या करें तो भावमुख का अर्थ है तीन सौ तरेसठ मतवाद । उस भावमुख के वर्ण (श्लाघा) को ग्रहण करना अर्थात् उनकी प्रशंसा करना मुखवर्ण है।
कुतीर्थ, कुशास्त्र, कुधर्म, कुव्रत, कुदान और उन्मार्ग के भक्तों के समक्ष उनके मत की प्रशंसा करना मुखवर्ण है। जो जिसका भक्त है उसके समक्ष अनुकूल बोलने से आज्ञाभंग आदि दोष आते हैं, मिथ्यात्व का स्थिरीकरण एवं सावध प्रवृत्तियों की अनुमोदना होती है तथा प्रवचन की अपभ्राजना होती है। लोग कहते हैं- ये चाटुकार हैं। अतः कुतीर्थिक आदि की प्रशंसा करने वाले भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ११. सूत्र ७२
आयारचूला के अनुसार यदि संयम-निर्वाह के योग्य अन्य जनपद हों तो साधु-साध्वियों को अराजक, गणराजक, यौवराज्य, वैराज्य एवं विरुद्ध राज्य में विहार के संकल्प से नहीं जाना चाहिए।' प्रस्तुत सूत्र में वैराज्य एवं विरुद्धराज्य में जाने वाले भिक्षु को प्रायश्चित्तार्ह माना गया है।
जिन राज्यों में पूर्व पुरुषों से परम्परागत वैर चल रहा हो, वर्तमान शासकों में वैरभाव हो या स्वच्छन्दता के कारण अन्य राजाओं के साथ वैरोत्पादन में अनुरक्ति हो, जिसके ईश्वर, श्रेष्ठी आदि अन्य अधिकारीगण राजा से विरक्त हो गए हों अथवा राजा के कालधर्म को प्राप्त हो जाने के कारण जो राज्य राजाविहीन हो गए हों, वे वैराज्य कहलाते हैं।
जहां परस्पर गमनागमन विरुद्ध हो, वे परस्पर विरुद्ध राज्य १. निभा. गा. ३३४३, ३३४४, ३३४६-३३४९ २. वही, गा. ३३५१ सचूर्णि। ३. पाइय.
निभा. भा. ३ चू. पृ. १९५-मुहं ति पवेसो। ५. वही-तिन्निसया-तिसट्ठा पावा दुरासया भावमुहं । तस्स भावमुहस्स
वन्नं अणतीति वनं आदत्ते-गृह्णातीत्यर्थः। ६. वही, गा. ३३५३, ३३५४ सचूर्णि। ७. वही, भा. चू. पृ. १९५ ८. आचू.३/१० ९. निभा. गा. ३३६० सचूर्णि
कहलाते हैं। इसी प्रकार राजाविहीन, युवराज आदि से रहित राज्यों में अव्यवस्था एवं अराजकता रहती है। अतः इन राज्यों तथा विरुद्ध राज्यों में जाने से भिक्षु के प्रति चोर, जासूस आदि होने की शंका संभव है। सूत्रकार ने ऐसे राज्यों में सद्यःगमन-वर्तमान में गमन अथवा बार-बार गमनागमन करने वाले भिक्षु को प्रायश्चित्ताह कहा है।
भाष्यकार के अनुसार जिन राज्यों में परस्पर व्यापारियों का गमनागमन विरुद्ध न हो अथवा जहां किसी अन्य आपवादिक परिस्थिति में वैराज्य अथवा विरुद्ध राज्य में अनिवार्यतः जाना हो तो विधिपूर्वक गमन अथवा आगमन किया जा सकता है।१२
कप्पो (बृहत्कल्पसूत्र) में वैराज्य एवं विरुद्धराज्य में सद्यः गमन, सद्यः आगमन एवं सद्यः गमनागमन का निषेध करते हुए बताया गया है कि वैराज्य एवं विरुद्धराज्य में गमनागमन करने वाला निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी तीर्थंकर एवं राजा की आज्ञा का अतिक्रमण करता है अतः उसे गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १३
तुलना हेतु द्रष्टव्य-कप्पो १/३७ का टिप्पण। १२. सूत्र ७३,७४
रात्रिभोजन प्राणातिपातविरमण मृषावादविरमण आदि मूलगुणों का विराधक है। अतः प्रत्येक निर्ग्रन्थ के लिए रात्रिभोजन विरमण व्रत पांच महाव्रतों के समान अनिवार्य व्रत है। यह उसकी सतत तपस्या एवं संयमानुकूल वृत्ति है।" रात्रिभोजन करने वाला किस प्रकार पांचों महाव्रतों एवं पांचों समितियों की विराधना करता है तथा संयमविराधना के साथ-साथ आत्मविराधना भी करता है इसका भाष्य एवं चूर्णि में सुन्दर वर्णन उपलब्ध होता है। इस प्रकार अनेक दोषों से दूषित रात्रिभोजन की श्लाघा करना अथवा दिवा-भोजन को अबलकर (पोषक तत्वों से रहित), चक्षुहत (दृष्टिदोष से दूषित) आदि कहते हुए दोषपूर्ण बताना, उसका अवर्णवाद करना शंका, मिथ्याप्ररूपणा आदि अन्य दोषों का कारण बनता है। रात्रिभोजन की प्रशंसा एवं दिवाभोजन की निन्दा-दोनों प्रकारान्तर से रात्रिभोजन की अनुमोदना है। अतः ऐसा आचरण करने वाले मुनि को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १०. वही, भा. ३ चू. पृ. १९६-जेसिं राईणं परोप्परं गमणागमणविरुद्धं,
तं वेरज्जं विरुद्धरज्जे। ११. वही, पृ. १९८ १२. वही, गा. ३३८३-३३९० सचूर्णि। , १३. कप्पो. १/३७ १४. दसवे. ६/२२ १५. निभा. गा. ५६३८-५६४३ सचूर्णि १६. वही, गा. ३३९५ १७. वही, गा. ३३९२, ३३९४