Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक १०: टिप्पण
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निसीहज्झयणं
हो और उसे भक्तपान या उपदेश देकर आकृष्ट कर लेना अथवा बीच में ही उसे छिपा देना, अन्य किसी के साथ अन्यत्र भेज देना आदि कार्य शैक्ष का अपहरण है।
किसी अन्य आचार्य के शैक्ष के मन को उसके गच्छ या आचार्य से विपरिणत करना, उसके मन को फंटाना विपरिणमन है, जैसे-उसे कहना-अमुक आचार्य सातिचार चारित्र का पालन करते हैं, श्रुतसम्पन्न नहीं हैं। हमारे आचार्य निरतिचार चारित्र का पालन करते हैं, बहुश्रुत हैं। इस प्रकार स्वयं के आचार्य अथवा संघ के अयथार्थ या यथार्थ गुणों का कथन और अन्य, जिसके पास प्रव्रजित है या प्रव्रजित होना चाहता है, उसके सत्, असत् दोषों का कथन कर उसके भावों को परिवर्तित करना विपरिणमन है।
निशीथभाष्य में शैक्ष के अपहार एवं विपरिणामन का सुविस्तृत एवं मनोवैज्ञानिक वर्णन किया गया है। शैक्षापहार एवं शैक्ष विपरिणामन से तृतीय महाव्रत की विराधना होती है अतः ये प्रायश्चित्तार्ह माने गए हैं। ९.सू. ११,१२
प्रव्रज्या अथवा उपस्थापना के समय जिस आचार्य अथवा उपाध्याय का उपदेश किया जाए-निर्देश दिया जाए, वह उसकी दिशा कहलाता है। संयत की दो दिशा होती है-आचार्य और उपाध्याय। संयती के प्रवर्तिनी सहित तीन दिशाएं होती हैं। उस दिशा को छोड़ अन्य आचार्य आदि को स्वीकार करना दिशापहार । है। किसी आचार्य के जाति, कुल, तप, यश, लाभ इत्यादि गुणों से अनुरक्त होकर अथवा स्वयं की दिशा में इन गुणों का अभाव देखकर उसके प्रति द्वेष के कारण दिशा का परित्याग दिशापहार है। ___ अन्य व्यक्ति के द्वारा दिशा (आचार्य आदि) के प्रति भावों को विपरिणत करना दिशा-विपरिणाम है। इसके मुख्यतः दो कारण हैं
१. उस शिष्य के प्रति अत्यधिक अनुराग ।
२. उस आचार्य अथवा उपाध्याय के प्रति अत्यधिक द्वेष-उसके शिष्य न हो-ऐसी भावना। द्वेषभाव से दिशा विपरिणामन करने वाला कहता है-यह तुम्हारा गुरु अल्पवयस्क है और तुम स्थविर । कैसे तुम अपने पौत्रवय वाले के शिष्य बनोगे? कैसे उसका विनय करोगे?
दिशापहार एवं दिशा विपरिणामन में राग-द्वेष की प्रबलता होती है। अतः कर्म बन्धन का हेतु है। १. निभा. गा. २७०१-२७२७ २. वही, भा. ३ चू. पृ. २९-दिशेति व्यपदेशः प्रव्रजनकाले उपस्थापन
काले वा। यो आचार्य उपाध्यायो वा व्यपदिश्यते सा तस्य दिशा
इत्यर्थः। ३. वही, पृ. २८१-साहुस्स आयरियउवज्झाया दुविहा दिसा दिज्जति।
इत्थियाए तइया-पवत्तिणी दिसा दिज्जति। ४. वही, पृ. ३६-आगतो आदेसं करोतीति आएसो, प्राघुर्णकमित्यर्थः ।
१०. सूत्र १३
कभी-कभी साधु के वेश में कोई गुप्तचर, चोर, अशिवगृहीत, पारदारिक अथवा राजा का अपकारी (प्रत्यनीक) आदि भी आ सकता है। आगन्तुक कौन है? क्यों आया है? कहां जाना चाहता है? अपने गच्छ से निर्गमन का क्या हेतु है?-इत्यादि सारी बातों की जानकारी करना विकटना अथवा आलोचना कहलाती है। जिस दिन कोई अन्यगच्छीय भिक्षु आए, उसी दिन उससे इन सारी बातों की जानकारी करनी चाहिए। यदि कुल, गण आदि के किसी विशेष कार्य, ग्लान अथवा अनशनी के वैयावृत्य अथवा परवादी के साथ वाद, गोष्ठियों आदि के कारण उस दिन जानकारी न की जा सके तो दूसरे या तीसरे दिन तक अवश्य जानकारी करनी चाहिए। अन्यथा उसे संवास देने वाले को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। शब्द विमर्श
१. आदेश-प्राघुर्णक (अतिथि) २. बहियावासी-अन्यगच्छवासी।
३. विप्फालणा-आलोचना। ११. सूत्र १४
अधिकरण का अर्थ है-कलह । प्रस्तुत सूत्र में साधिकरणकलहकारी भिक्षु के साथ संभोज रखने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। कषाय से कलुषित चित्त कर्मबन्धन का कारण है। वह आत्मा को निरन्तर अधोगति की ओर ले जाता है अतः कषायाविष्ट होना या अशुभ भावों से युक्त होना अधिकरण है।
साधु दो प्रकार के अधिकरण से साधिकरण बनता है१. स्वपक्षाधिकरण साधु के साथ कलह । २. परपक्षाधिकरण-गृहस्थ के साथ कलह । कलह से होने वाले दोष मुख्यतः ये हैं१. पश्चात्ताप २. चारित्रभेद (चारित्र का विनाश)। ३. अपयश ४. ज्ञान एवं चारित्र की हानि । ५. साधुओं के प्रति द्वेष वृद्धि ६.संसारवृद्धि।
इसलिए जितना जल्दी हो सके, कलह को उपशान्त करना चाहिए। उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। ५. वही-अण्णगच्छवासी बहियावासी भण्णति। ६. वही-विप्फालणा णाम वियडणा-किं निमितं आगता? अणज्जंतो
वा भदंत! कतो आगता? कहिं वा वच्चइ? ७. वही, पृ. १३९-अधिकरणं कलहो भण्णति । ८. वही, गा. २७७२ व उसकी चूर्णि ९. वही, गा.२०८७