Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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निसीहज्झयणं
उद्देशक १० : टिप्पण आषाढ़ शुक्ला दसमी तक यदि भिक्षु वर्षावास-प्रायोग्य क्षेत्र में पहुंच कल्प' का पठन कर पर्युषित होने की विधि थी। उसमें भिक्षु के लिए जाए तो पांच दिन में क्षार, मल्लक, डगलग (ढेला) आदि आवश्यक पर्युषणा से सम्बन्धित आवश्यक कार्यों का निर्देश था। उसका द्रव्यों को ग्रहण कर आषाढ़ी पूर्णिमा तक पर्युषित हो जाए यह वाचन रात्रि में केवल भिक्षुओं की उपस्थिति में होता था। उस विधि उत्सर्ग मार्ग है। यदि आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन पर्युषित न हो सके तो के अनुसार गृहस्थ एवं अन्यतीर्थिक के समक्ष पर्युषणाकल्प का पांच दिन बाद पर्युषित हो जाए। इस प्रकार पांच-पांच दिन बढ़ाने का । वाचन निषिद्ध था। भाष्यकार के अनुसार इससे सम्मिश्रवास, शंका क्रम अन्ततः भाद्रव शुक्ला पंचमी तक भी पहुंच सकता है, किन्तु आदि दोषों की संभावना रहती है। तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य उसका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। सांवत्सरिक महत्त्व के श्रीमद्जयाचार्य कृत हुण्डी से प्रस्तुत सूत्र का वाच्यार्थ कुछ भिन्न कारण ही इसका प्रचलित नाम संवत्सरी है।
प्रतीत होता है। प्रस्तुत सूत्रद्वयी में पर्युषणा में पर्युषित न होने का तथा अपर्युषणा अन्यतीर्थी अने गृहस्थ ने पज्जुसण करावै तो, पज्जुसण ने अर्थात् पर्युषणा काल के पूर्व या उसके अतिक्रान्त होने के बाद संवत्सरी, ते ऊपर पोते केश न राखे तिम गृहस्थ में पिण कहे तुमे पर्युषित होने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है । भाष्यकार के अनुसार अशिव, केस कटावो, इम कहे ते पज्जुसण करायां इत्यादि सावद्य कर्तव्य दुर्भिक्ष, राजद्वेष आदि इस विधान के अपवाद हैं।
पज्जुसण दिने ते न करे, तिवारे अनेरा गृहस्थ ने साधु कहे आज २०. सूत्र ३८,३९
पज्जुसण छे, अनेरा गृहस्थ ए कार्य करै छे तुम्हे पिण ए कार्य करो इम पर्युषणा का अन्तिम एवं अनतिक्रमणीय दिन है-भाद्रव शुक्ला पज्जुसण न करावै, पिण पज्जुसण संवत्सरी रे दिन पोसा करायां दोस पंचमी। इसे संवत्सरी महापर्व के नाम से जाना जाता है। जो भिक्षु नथी। संवत्सरी के दिन गोलोम (गाय के रोम) जितने या उससे लम्बे बाल इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र एवं एतद् विषयक परम्परा का संधानरखता है अथवा इत्वरिक आहार भी ग्रहण करता है, उसे गुरु सूत्र अन्वेषण का विषय है। चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तथा आज्ञाभंग, अनवस्था २२. सूत्र ४१ आदि दोष लगते हैं। चतुर्विध आहार में ठोस वस्तुओं के लिए भिक्षु किस काल एवं क्षेत्र में वस्त्र ग्रहण करे-इस विषय में अल्पतम परिमाण है-तिलतुष मात्र या एक कवल और द्रव पदार्थों, ___ कप्पो (बृहत्कल्पसूत्र) में निषेधक एवं विधायक दोनों सूत्र उपलब्ध पानक आदि का इत्वरिक परिमाण है-बिन्दुमात्र ।'
होते हैं। प्रस्तुत सूत्र में उपर्युक्त निषेध के अतिक्रमण का प्रायश्चित्त शब्द विमर्श
प्रज्ञप्त है। १. गोलाममाई पि-गाय के लोम जितने भी। चूर्णिकार के पर्युषणा अथवा वर्षावास का एक पर्यायवाची नाम है-प्रथम अनुसार 'अपि' शब्द के द्वारा 'हस्तप्राप्य' (हाथ में पकड़े जा सकें। समवसरण । वर्ष का प्रारंभ पर्युषणा काल से होता है अतः उसे प्रथम उतने) बालों का ग्रहण किया गया है।
समवसरण कहा जाता है। इसीलिए शेषकाल को ऋतुबद्धकाल २. उवातिणावेति-चूर्णिकार के अनुसार 'उवातिणावेति' का अथवा द्वितीय समवसरण कहा जाता है। मुनि को प्रथम समवसरण अर्थ है-पर्युषणा की रात्रि का अतिक्रमण करता है। यहां इसका में वस्त्र ग्रहण करना नहीं कल्पता।२ प्रस्तुत सूत्र में उसी अतिक्रमण भावार्थ है-पर्युषणा की रात्रि के बाद भी बाल रखता है।
का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। २१. सूत्र ४०
भाष्यकार ने क्षेत्र और काल से प्राप्त और अप्राप्त के आधार निशीथभाष्य एवं चूर्णि के अनुसार प्राचीन काल में 'पर्युषणा पर चार भंगों का निर्देश दिया हैनिभा. भा. ३चू.पृ. १३०,१३१-सेसकालं पज्जोसवेताणं अववातो। ६. वही-उवातिणावति त्ति पज्जोसवणारयणिं अतिक्कामतीत्यर्थः। अववाते वि सविसतिरातमासातो परेण अतिक्कमेउं ण वट्टति। ७. वही, गा. ३२१८-३२२० व इनकी चूर्णि। सवीसतिराते मासे पुण्णे जति वासखेत्तंण लब्भति तो रुक्खट्ठा वि ८. वही, भा. ३, चू.पृ. १५७-एतेसिं सम्मीसवासे दोसा भवंति । पज्जोसवेयव्वं।
....सम्मीसवासदोसो संकादोसो य। २. वही, गा. ३१५२, ३१५८-३१६०
९. नि. हुंडी १०/५१ ३. वही, गा. ३२१०, ३२१२, ३२१५
१०. कप्पो ३/१६,१७ ४. वही, ३ पृ. १५७
११. निभा. ३ चू.पृ.१२६-जतो पज्जोसवणातो वरिसं आढप्पति, अतो वही, ३ चू. पृ. १५५-गोलोममात्रापि न कर्तव्या, किमुत दीर्घा। पढमं समोसरणं भण्णति। अहवा-हस्तप्राप्या अपिशब्देन विशेष्यति।
१२. कप्पो. ३/१६