Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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निसीहज्झयणं
२१५
भाष्यकार के अनुसार जब तक कलह शान्त न हो, तब तक साधिकरण भिक्षु को प्रतिदिन चार बार उपशम की प्रेरणा देनी चाहिए - १. स्वाध्यायकाल २. भिक्षाकाल ३. भक्तार्थ (भोजन) काल और ४. आवश्यक काल । स्वाध्याय प्रारम्भ करने के समय आचार्य उस कषायाविष्ट भिक्षु से कहते हैं-आर्य ये साधु स्वाध्याय | नहीं कर पा रहे हैं, तुम शान्त हो जाओ । यदि वह उपशान्त नहीं होता तो भिक्षार्थ -गमन के समय पुनः कहते हैं-आर्य ! उपशान्त हो जाओ। भिक्षा से लौटने के बाद पुनः उसे कहते हैं-आर्य ये साधु आहार नहीं कर पा रहे हैं, तुम शान्त हो जाओ। फिर भी वह शान्त नहीं होता तो प्रतिक्रमण के समय पुनः उसे उपशम की प्रेरणा दी जाती है। इस प्रकार जब तक वह उपशान्त नहीं होता, प्रतिदिन उसे चार बार उपशम की प्रेरणा दी जाती है।
गृहस्थ के साथ कलह होने पर संयमविराधना, आत्मविराधना, व्युद्ग्रहण, प्रवचन- विराधना एवं संघविनाश आदि अनेक दोष संभव हैं। इसलिए साधिकरण भिक्षु जब तक कलह को उपशान्त न कर ले, कलह से प्राप्त होने वाले प्रायश्चित्त का वहन न कर ले, तब तक पूछताछ करके भी उसके साथ संभोज नहीं रखना चाहिए, बिना पूछताछ के तो संभोज की बात ही क्या ?
प्रस्तुत संदर्भ में कलह की उत्पत्ति, उसकी उपेक्षा से होने वाली हानियां, कलहकारी भिक्षु एवं गृहस्थ को उपशान्त करने की विधि एवं उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाए-इत्यादि बातों के विषय में भाष्य एवं चूर्णि में विशद, सरस एवं मनोवैज्ञानिक विवेचन उपलब्ध होता है। शब्द विमर्श
१. साधिकरण - कषायभाव या अशुभ भाव सहित अथवा कर्मबन्धन के कारण से युक्त ।'
२. पाहुड - कलह । *
३. संभोज - एक मंडली में भोजन करना ।
१२. सूत्र १५-१८
प्रायश्चित्त का प्रयोजन है- दोष की विशुद्धि प्रायश्चित लेने वाला ऋजुतापूर्वक अपने दोष का निवेदन करता है । उसके बाद प्रायश्चित्त- दाता का यह कर्त्तव्य बनता है कि वह उसे उतना ही १. निभा.गा. २७९६-२७९८ व उनकी चूर्णि
२. विस्तार हेतु द्रष्टव्य वही, गा. २८३६-२८३८
३. वही, भा. ३ चू. पृ. ३८-साधिकरणो कषायभावाशुभभावसहित इत्यर्थः । ..... भावाधिकरणं कर्मबन्धकारणमित्यर्थः ।
वही - पाहुडं कलहमित्यर्थः ।
वही - संभुंजण संभोएण संभुंजति - एगमंडलीए त्ति वृत्तं भवति ।
४.
५.
६. वही, गा. २८६५
७. (क) वही, गा. २८६२ की चूर्णि (पृ. ६० )
(ख) द्रष्टव्य १ / १५ का टिप्पण ।
उद्देशक १० : टिप्पण प्रायश्चित्त दे, जिससे उसके दोष की पूर्ण विशुद्धि हो जाए। जितना प्रायश्चित्त प्राप्त होना चाहिए, उससे न्यून मात्रा में प्रायश्चित्त दिया जाए तो दोष की पूरी विशुद्धि नहीं होती। यदि प्रायश्चित अधिक दिया जाए तो प्रायश्चित्त ग्रहणकर्त्ता को परितापना होती है। प्रायश्चित्त के भय से वह दूसरी बार आलोचना के लिए प्रस्तुत ही नहीं हो
पाता ।
लघु प्रायश्चित्त के स्थान पर गुरु और गुरु प्रायश्चित के स्थान पर लघु प्रायश्चित्त की प्ररूपणा करने से श्रुतधर्म तथा विपरीत प्रायश्चित्त देने से चारित्रधर्म की विराधना होती है। भाष्यकार के अनुसार विपरीत प्रायश्चित्त की प्ररूपणा एवं आरोपणा (दान) में मुख्यतः निम्नांकित दोष संभव हैं
१. आज्ञाभंग २. अनवस्था ३. मिथ्यात्व ४. परितापना ५. अननुकम्पा ६. दोष का विश्वासपूर्वक आसेवन ७. धर्म की आशातना ८. मोक्षमार्ग की विराधना।"
शब्द विमर्श
१. उद्घातिक -लघु, जिसे अन्तरालपूर्वक वहन किया जाए।' २. अनुद्घातिक - गुरु, जिसे निरन्तर वहन किया जाए। " १३. सूत्र १९-२४
तपः प्रायश्चित्त के दो प्रकार हैं-शुद्ध तप और परिहार तप । अगीतार्थ, दुर्बल धृतिवाले तथा सामान्य संहननवाले भिक्षु तथा सभी साध्वियों को शुद्ध तप ही दिया जाता है। वज्रकुड्य के समान सुदृढ़ धृतिवाला एवं उत्कृष्ट संहननवाला गीतार्थ भिक्षु, जो जघन्यतः नवें पूर्व की तृतीय आचारवस्तु तथा उत्कृष्टतः कुछ न्यून दसपूर्व का ज्ञाता हो, उसे परिहारतप दिया जाता है।"
परिहार तप रूप प्रायश्चित्त को वहन करने वाले भिक्षु के साथ गच्छ आलाप, प्रतिपृच्छा आदि दस पदों का परिहार करता है। इनमें संभोज दसवां पद है।" इसका अतिक्रमण करने पर गच्छवासी एवं परिहारतपस्वी दोनों को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है । १३
प्रस्तुत सूत्र- षट्क का सम्बन्ध संभोजपद से है। अतः इनका सम्बन्ध परिहार तपःप्रायश्चित्त से है, शुद्ध तपः प्रायश्चित्त से नहीं । १४ प्रस्तुत सन्दर्भ में भाष्यकार एवं चूर्णिकार ने परिहार तपः प्रायश्चित्त की विधि का विस्तृत विवेचन किया है। १५
८. निभा, गा. २८६३ - २८६६
९. वही, भा. ३ चू. पृ. ६२ - उग्घातियं णाम जं संतरं वहति, लघुमित्यर्थः । १०. वही - अणुग्घातियं णाम जं णिरंतरं वहति, गुरुमित्यर्थः ।
१९. वही, गा. २८७३, २८७६
१२. वही, गा. २८८१
१३. वही, गा. २८८२, २८८३ की चूर्णि
१४. वही, गा. २८८६
१५. विस्तार हेतु द्रष्टव्य-वही, गा. २८६८-२८८६