Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
निसीहज्झयणं
१८१
उद्देशक ८ : टिप्पण जाए अथवा यहां कोई अन्य हेतु होना चाहिए यह विमर्शनीय है। ६. स्कन्द-कार्तिकेय। प्रस्तुत संदर्भ में एक मत यह भी प्राप्त होता है कि यहां 'रण्णो' से ७. मुकुन्द-बलदेव। राजा का तथा 'खत्तियाणं आदि से अमात्य, पुरोहित, ईश्वर आदि ८.चैत्य-देवकुल॥ पदों पर अभिषिक्त अन्य शुद्ध क्षत्रिय पदाधिकारियों का ग्रहण किया
सूत्र १५ जाए।
७. उत्तरशाला अथवा उत्तरगृह (उत्तरसालंसि वा उत्तरगिहंसि ६.सूत्र १४
वा) प्राचीन काल में अनेक लौकिक देवी-देवताओं की पूजा होती उत्तर शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है जैसे श्रेष्ठ, उपरितन, थी तथा अनेक प्रकार के महोत्सव मनाने की परम्परा थी। इनमें अतिरिक्त, पश्चाद्वर्ती आदि। प्रस्तुत संदर्भ में भाष्यकार ने इसके आमोद-प्रमोद, नृत्य-गायन के साथ-साथ खाने-खिलाने आदि का पश्चाद्वर्ती अर्थ को ग्रहण किया है जो मूलगृह (राजप्रासाद) के भी आयोजन होता था। प्रस्तुत सूत्र में इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, गिरि, दरि, बाद बनाया जाए, वह घर और शाला क्रमशः उत्तरगृह एवं उत्तरशाला नदी आदि अनेक महोत्सवों का उल्लेख हुआ है। इनमें राजा एवं कहलाता है। इसका एक अन्य अर्थ है-क्रीड़ा स्थल, जो मूलगृह से प्रजाजन सभी समान रूप से भाग लेते अथवा कई महोत्सव विशेषतः प्रायः असंबद्ध होता है। शाला कुड्यरहित एवं विशाल होती है, राजाओं की ओर से आयोजित होते थे। प्रस्तुत सूत्र में उन्हीं __गृह कुड्य सहित और अनेकविध होता है। उत्तरशाला और उत्तरगृह महोत्सवों में अशन, पान आदि ग्रहण करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है, में प्रविष्ट राजा से अशन, पान आदि ग्रहण करने वाले भिक्षु के प्रति जो केवल मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा द्वारा आयोजित हों अथवा स्तैन्य आदि की आशंका हो सकती है। अतः भिक्षु को इन स्थानों जिसमें वैसे राजा की अंशिका (भागीदारी) हो, क्योंकि उन महोत्सवों का वर्जन करना चाहिए। में अशन, पान आदि ग्रहण करने पर भद्र-प्रान्त कृत अनेक दोष ८. सूत्र १६ संभव हैं-भद्रप्रकृति वाला राजा सोचता है-इस उपाय (बहाने) से प्रस्तुत सूत्र में हयशाला, गजशाला आदि कुछ प्रसिद्ध शालाओं भिक्षु मेरा आहार ग्रहण करते हैं, यही अच्छा है-ऐसा सोच वह के साथ गुह्यशाला, मैथुनशाला आदि अप्रसिद्ध शालाओं का भी बार-बार इस प्रकार के आयोजनों में प्रवृत्त होता है। प्रान्त प्रकृति उल्लेख हुआ है। कुछ प्रतियों में मंत्रशाला और गुह्यशाला के साथ वाला राजा इसे प्रकारान्तर से ग्रहण करना समझ कर मुनि के प्रति द्वेष रहस्यशाला शब्द भी प्राप्त होता है। करता है। फलतः वह भोजन, उपधि, स्थान आदि का व्यवच्छेद चूर्णिकार के अनुसार जब मूर्धाभिषिक्त राजा अश्वशाला, कर देता है।
गजशाला आदि में गया हुआ हो, उस समय घोड़ों, हाथियों आदि शब्द विमर्श
को खिलाने के लिए अथवा उन शालाओं में जो अनाथ आदि बैठे १. क्षत्रिय-क्षत्रिय जाति में उत्पन्न ।'
हों, उन्हें देने के लिए जो आहार ले जाया जाता है, उसे ग्रहण करने २. मुदित-जाति से विशुद्ध ।'
पर प्रायश्चित्त प्राप्त होता है क्योंकि इससे उनके अन्तराय लगती है ३. मूर्धाभिषिक्त-पिता आदि के द्वारा राज्याभिषेक किया तथा राजपिण्ड के ग्रहण से आने वाले अन्य दोषों की भी संभावना
रहती है। ४. समवाय-गोष्ठी भोज (गोठ)
शब्द विमर्श ५. पिण्डनिकर-पितृभोज (मृतक भोज)।'
१.मंत्रशाला-मंत्रणागृह (मंत्रणाकक्ष)।
हुआ।
१. निशी. (सं. व्या.), पृ. १९७-अत्र उपलक्षणात्-अमात्य
पुरोहितेश्वर-तलवर-माडम्बिक-कौटुम्बिकेभ्य-श्रेष्ठि-सेनापत्यादीनामपि ग्रहणं कर्त्तव्यम्। ......राजाद्यतिरिक्तानाममात्यादीनामपि वक्ष्यमाणेषु समवायादिषु इन्द्रमहादिषु च साधुरशनादिकं न गृह्णीयादति सम्बन्धः।
निभा. गा. २४८०-२४८६ ३. वही, भा. २ चू.पृ. ४४४-खत्तिय त्ति जातिम्गहणं। ४. वही-मुदितो जातिशुद्धो। ५. वही-पितिमादिएण अभिसित्तो मुद्धाभिसित्तो। ६. वही-समवायो गोष्ठीभत्तं ।
७. वही-पिंडणिगरो दाइभत्तं, पितिपिण्डपदाणं वा पिंडणिगरो। ८. वही-खंघो स्कन्दकुमारो। ९. वही-मुकुंदो बलदेवः। १०. वही-चेतितं देवकुलं। ११. वही, गा. २४९० १२. वही, भा. २, चू.पृ. ४३३-अकुड्डा साला, सकुडं गिह। १३. वही, गा. २४८८ १४. वही २,चू.पू. ४४६-हयगयसालासहयगयाण उवजेवण-पिंडमाणियं
देति, तत्थ रायपिंडो अंतरायदोसोय सेससालासुपट्ठा भत्ता । अहवा सुत्ताभिहियसालासु ठितादीण अणाहादियाण भत्तं पयच्छति।