Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक ८ : टिप्पण
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निसीहज्झयणं २. गुह्यशाला-जहां गुप्त वार्ता की जाए।
२. उत्सृष्ट-पिण्ड-उज्झितधर्मा आहार आदि, जैसे-कौए, ९. सूत्र १७,१८
कुत्ते आदि को दिया जाने वाला आहार। राजा से संबद्ध स्थानों-उत्तरगृह, उत्तरशाला, गजशाला, ३. संसृष्टपिण्ड-भुक्तावशेष, राजा एवं राजपरिवार के खाने अश्वशाला आदि में अशन-पान आदि को ग्रहण करने पर जिस के बाद बचा हुआ भोजन।। प्रकार राजपिण्ड के ग्रहण से आने वाले भद्र-प्रान्तकृत दोष संभव है, ४. अनाथपिण्ड-जिसका कोई बांधव न हो (योगक्षेम का उसी प्रकार राजा के सन्निधि सनिचय से तथा राजा द्वारा अनाथ, संवाहक न हो), वह अनाथ कहलाता है। अनाथ मनुष्यों के लिए वनीपक, कृपण आदि को दिये जाने वाले अशन आदि को ग्रहण ___ बनाया गया आहार अनाथपिण्ड कहलाता है।' करने पर भी वे ही दोष संभव हैं। अतः इन्हें भी राजपिण्ड के समान ५. कृपणपिण्ड-कृपण का अर्थ है पिण्डोलग-भिक्षाजीवी। ही अग्राह्य माना गया है।
कृपणों को देने के लिए बनाया हुआ आहार कृपणपिण्ड कहलाता है। १. सन्निधि-संनिचय-विनाशी द्रव्यों दूध, दही आदि का ६. वनीपकपिण्ड-याचना वृत्ति वाले वे लोग, जो दान संग्रह सन्निधि तथा अविनाशी द्रव्यों-घी, तेल, वस्त्र का संग्रह आदि का फल बताकर दान प्राप्त करते हैं, वनीपक कहलाते हैं। संचय कहलाता है।
उनके लिए निष्पन्न आहार वनीपकपिंड है। विस्तार हेतु द्रष्टव्य-दसवे. ५/१/५१ का टिप्पण।
१. निभा. गा. २४९४,२४९५ २. वही, भा. २, चू.पृ. ४४६-सन्निही णाम दधिखीरादि जं विणासि
दव्वं, जंपुण घय-तेल्ल-वत्थ-पत्त-गुल-खंड-सक्काराइयं अविणासि
दव्वं, चिरमवि अच्छइ ण विणस्सइ, सो संचतो। ३. वही, पृ. ४४७-ऊसटे उज्झियधम्मिए।
४. वही-संसत्तपिंडो भुत्तावसेसं। ५. वही-अणाहा अबंधवा तेसिं जो कओ पिंडो। ६.. दसवे. हा.टी. पृ. १८४-कृपणं वा पिण्डोलकम्। ७. निभा. भा. २ चू. पृ. ४४७-वणिमगपिंडोणाम जो जायणवित्तिणो,
दाणादिफलं लभंति, तेसिं जंकडं तं वणिमगपिण्डो भण्णति ।