Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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निसीहज्झयणं
उद्देशक १० : सूत्र २९-३५
२१० उग्गाल-पदं
उद्गार-पदम् २९. जे भिक्खू राओ वा वियाले वा यो भिक्षुः रात्रौ वा विकाले वा सपानं
सपाणं सभोयणं उग्गालं उग्गिलित्ता सभोजनम् उद्गारम् उद्गीर्य प्रत्यवगिलति, पच्चोगिलति, पच्चोगिलंतं वा प्रत्यवगिलन्तं वा स्वदते। सातिज्जति॥
उद्गार-पद २९. जो। भिक्षु रात्रि अथवा विकाल वेला में पानसहित और भोजनसहित उद्गार का उद्गिरण कर उसे पुनः निगलता है अथवा पुनः निगलने वाले का अनुमोदन करता है।५
गिलाण-पदं
ग्लान-पदम्
ग्लान-पद
३०. जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा ण गवसति, ण गवसंतं वा सातिज्जति॥
यो भिक्षुः ग्लानं श्रुत्वा न गवेषयति, न गवेषयन्तं वा स्वदते ।
३०. जो भिक्षु ग्लान के विषय में सुनकर उसकी
गवेषणा नहीं करता अथवा गवेषणा नहीं करने वाले का अनुमोदन करता है।
३१. जे भिक्खू गिलाणं सोच्चा उम्मग्गं
वा पडिपहं वा गच्छति, गच्छंतं वा सातिज्जति॥
यो भिक्षुः ग्लानं श्रुत्वा उन्मार्ग वा प्रतिपथं ३१. जो भिक्षु ग्लान के विषय में सुनकर उन्मार्ग वा गच्छति, गच्छन्तं वा स्वदते । अथवा प्रतिपथ से चला जाता है अथवा
जाने वाले का अनुमोदन करता है।१६
३२. जे भिक्खू गिलाणवेयावच्चे यो भिक्षुः ग्लानवैयावृत्ये अभ्युत्थितस्य ३२. जो भिक्षु ग्लान के वैयावृत्त्य में अभ्युत्थित
अब्भुट्ठियस्स सएण लाभेण स्वकेन लाभेन असंस्तरतः यः तस्य न है, उसके अपने लाभ से उस का निर्वाह न असंथरमाणस्स, जो तस्स न प्रतितृप्यति, न प्रतितृप्यन्तं वा स्वदते। होने पर जो (अन्य भिक्षु) उसको तृप्त नहीं पडितप्पति, न पडितप्पंतं वा
करता-उसे भक्तपान आदि लाकर नहीं देता सातिज्जति॥
अथवा तृप्त न करने वाले का अनुमोदन करता है।
३३. जे भिक्खू गिलाणवेयावच्चे यो भिक्षुः ग्लानवैयावृत्ये अभ्युत्थितः ३३. जो भिक्षुग्लान के वैयावृत्त्य में अभ्युत्थित
अब्भुट्ठिए गिलाणपाउग्गे दव्वजाए ग्लानप्रायोग्ये द्रव्यजाते अलभ्यमाने, यस्तं है, वह ग्लान-प्रायोग्य द्रव्यजात-औषध, अलब्भमाणे, जो तं न न प्रत्याचक्षते, न प्रत्याचक्षाणं वा स्वदते। पथ्य आदि न मिलने पर उस (आचार्य अथवा पडियाइक्खति, न पडियाइक्खंतं वा
अन्य भिक्षुओं) को नहीं कहता अथवा नहीं सातिज्जति॥
कहने वाले का अनुमोदन करता है।
विहार-पदं ३४. जे भिक्खू पढमपाउसंसि
गामाणुग्गामं दूइज्जति, दूइज्जंतं वा सातिज्जति॥
विहार-पदम्
विहार-पद यो भिक्षुः प्रथमप्रावृषि ग्रामानुग्रामं दूयते, ३४. जो भिक्षु प्रथम प्रावृट् में ग्रामानुग्राम दूयमानं वा स्वदते।
परिव्रजन करता है अथवा परिव्रजन करने वाले का अनुमोदन करता है।
३५. जे भिक्खू वासावासंसि
पज्जोसवियंसि दूइज्जति, दूइज्जंतं वा सातिज्जति॥
यो भिक्षुः वर्षावासे पर्युषिते दूयते, दूयमानं वा स्वदते ।
३५. जो भिक्षु वर्षावास में पर्युषित होने के बाद
परिव्रजन करता है अथवा परिव्रजन करने वाले का अनुमोदन करता है।