Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक ८ : टिप्पण
जिसका संघट्टन हो अथवा परस्पर दृष्टि से संसक्त।"
३. स्त्रियों से परिवृत- जो सर्वतः समन्तात् स्त्रियों से परिवेष्टित (घिरा हुआ हो। '
४. अपरिमित कथा - तीन यावत् पांच प्रश्नों का उत्तर देना परिमित कथा (वार्ता) तथा छह या उससे अधिक प्रश्नों का उत्तर देना अपरिमित कथा है । २
३. सूत्र ११
अभ्युद्यतविहार की अपेक्षा विधिवत् गच्छ-परिपालन में अधिक निर्जरा होती है। उसमें भी साध्वियों की सुरक्षा एवं उनका यथोचित निर्वहन गणधर का प्रमुख कर्त्तव्य है-भाष्य एवं चूर्णि में अनेकशः उल्लिखित इस तथ्य से तथा अन्य तत्कालीन परिस्थितियों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि उस काल में साध्वियों के लिए अनेक व्यवस्थाएं साधुओं, विशेषतः गणधर को करनी होती थी, जैसे - क्षेत्र प्रतिलेखना, उचित उपाश्रय एवं शय्यातर की खोज आदि । जहां मार्ग में श्वापद, म्लेच्छ आदि का भय होता, वहां साधु अपेक्षानुसार उनके आगे पीछे या परिपार्श्व में परिव्रजन करते। प्रस्तुत सूत्र में आर्त्तध्यान पूर्वक साध्वियों के साथ ग्रामानुग्राम परिव्रजन करने तथा स्वाध्याय आदि करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। भाष्यकार के अनुसार जिस आतंध्यान का कारण विषयराग हो, उससे आत्मविराधना, चारित्रविराधना आदि दोष संभव हैं। अतः उसका निषेध है । साध्वियों के कोई उपसर्ग हो, ग्लान्य हो, उसके निवारण के लिए होने वाली चिन्ता आदि इसके अपवाद हैं।
४. सूत्र १२,१३
प्रस्तुत सूत्रद्वयी में गृहस्थ के साथ रात्रि में संवास करने तथा उसके निमित्त गमनागमन करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। सम्बन्ध की दृष्टि से गृहस्थ दो प्रकार का हो सकता है शाति और अज्ञाति (ज्ञातिजन से अतिरिक्त) । श्रद्धा एवं व्रत की अपेक्षा से भी उसके दो भेद हो जाते हैं-उपासक और अनुपासक (श्रावक के सिवाय अन्य गृहस्थ)।' इन सूत्रों में चारों ही प्रकार के गृहस्थ का कथन हुआ है।
इन सूत्रों में स्त्री या पुरुष का स्पष्ट निर्देश नहीं है। भाष्य एवं १. निभा. भा. २ चू.पू. ४३४ सम्बतो समता परिवेडिओ परिवुडो भण्णति ।
२. वही - परिमाणं जाव तिण्णि चउरो पंच वा वागरणानि परतो छट्टादि अपरिमाणं कहं ।
३. वही, पृ. ४२९-अज्जयविहारात तस्स विधिपरियणे बहुतरिया णिज्जरा ।
४.
(क) वही, गा. २४४८
(ख) विस्तार हेतु द्रष्टव्य वही, गा. २४४९-२४६५
वही, गा. २४४४-२४४७ सचूर्णि
५.
६. वही, गा. २४६८
७. वही, गा. २४६९ सचूर्णि
१८०
निसीहज्झयणं
चूर्ण से भी स्पष्टतः ऐसी प्रतीति नहीं होती कि ये सूत्र केवल स्त्री के संवास संबंधी हैं। यद्यपि भाष्य एवं चूर्णि में एक निर्देश - 'इत्थिं पडुच्च सुत्तं' मिलता है, किन्तु आगे भाष्यकार ने सहिरण्य, सभोयण आदि पदों से अपने अभिप्राय को विस्तृत कर दिया है।" प्रस्तुत गाथा, उसकी चूर्णि एवं अग्रिम गाथाओं से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि चाहे अकेली स्त्री हो, चाहे स्त्रीयुक्त पुरुष हो, धन सहित पुरुष हो या भक्तपान सहित पुरुष हो, इनके साथ संवास करने से शंका, कलह, हिंसा आदि अनेक दोषों की संभावना रहती है।' अतः गृहस्थ के साथ रात्रिसंवास करने पर गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त विधान है। चूर्णिकार के अनुसार इन दोषों से रहित पुरुष के साथ संवास करने पर लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है ।" शब्द विमर्श
१. आधी अथवा पूरी रात-रात्रि के दो और चार प्रहर क्रमशः आधी और पूरी रात है। वैकल्पिक रूप में एक प्रहर और तीन प्रहर का - आधी और पूरी रात में ग्रहण किया जा सकता है - ऐसा चूर्णिकार का अभिमत है। "
२. संवास देना एक ही उपाश्रय में उन्हें रहने का कहना, अन्य कहने वाले का अनुमोदन करना, रहने का प्रतिषेध न करना और प्रतिषेध न करने वाले का अनुमोदन करना - सारा 'संवास देना' के अंतर्गत है।"
३. पडुच्च (निमित्त से) गृहस्थ को कायिकी आदि के लिए निष्क्रमण करते देखकर सोचना - यह कायिकी संज्ञार्थ गया है, मैं भी चला जाऊं । अथवा उसे उस निमित्त से उठाना कि आओ, चलें । १२ सूत्र १४ ५. मूर्धाभिषिक्त शुद्धवंशीय क्षत्रिय राजा (रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं)
प्रस्तुत आगम के आठवें उद्देशक तथा नवें उद्देशक tv में 'रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं' इस वाक्यांश का प्रयोग हुआ है। इस वाक्यांश में 'रण्णो' पद एकवचनान्त और खत्तियाणं आदि तीनों पद बहुवचनान्त हैं, ऐसा क्यों ? इसे 'आर्ष' प्रयोग माना वही, गा. २४७१, २४७२
८.
९.
वही, भा. २ चू. पृ. ४४२
१०. वही, भा. पृ. ४४१
१९. वही- एगवसहीए संवासो 'वसाहि' त्ति भणति, अण्णं वा अणुमोदति। जो तं न पडिसेधेति, अण्णं वा अपडिसेयंतं अणुमोयति ।
१२. वही, पृ. ४४३ पडुच्च त्ति जाहे सो गिहत्थो काइयादि णिग्गच्छति ताहे संजतो वि चिंतेति-एस काइयं गतो अहमवि एयणिस्साए काइयं गच्छामि, उट्ठावेति वा एहि, वच्चामो।
१३. निसीह. सू. ८ / १४- १८
१४. वही, सू. ९/६ - ११, १३-२९