Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आमुख
प्रस्तुत उद्देशक का मुख्य प्रतिपाद्य है-राजा और राजपिण्ड । आठवें उद्देशक के समान ही इस उद्देशक में प्रज्ञप्त प्रतिषिद्ध पदों के समाचरण का प्रायश्चित्त है अनुद्घातिक चातुर्मासिक। आठवें उद्देशक के अन्तिम पांच सूत्रों में राजसत्क आहार को ग्रहण करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। इस उद्देशक में राजपिण्ड एवं राजपिण्ड मिश्रित आहार को ग्रहण एवं भोग करने के प्रायश्चित्त के अतिरिक्त राजा के अन्तःपुर में प्रवेश, राजान्तःपुरिका के द्वारा अभ्याहृत अथवा मंगवा कर आहार आदि का ग्रहण, राजा से संबद्ध षड् दोषायतनों को जाने, पूछे एवं गवेषणा किए बिना भिक्षार्थ प्रवेश-निष्क्रमण, राजाओं के प्रवेश एवं निर्गमन को तथा राजरानियों को देखने की इच्छा, राजा के रहे हुए स्थान में रहना, महाभिषेक के समय प्रवेश-निष्क्रमण तथा आभिषेक्य राजधानियों में प्रवेश-निष्क्रमण-इन सब सूत्रों का उल्लेख (संग्रहण) हुआ है। यहां यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि सूत्रकार ने इन सूत्रों को आठवें उद्देशक में न रखकर नवें उद्देशक में क्यों रखा? अथवा आठवें उद्देशक के अन्तिम पांच सूत्रों को इस उद्देशक में क्यों नहीं रखा? भाष्य एवं चूर्णि में इस प्रश्न का कोई समाधान नहीं है। भाष्यकार ने भी क्षत्रिय, मुदित, मूर्धाभिषिक्त आदि शब्दों की व्याख्या आठवें उद्देशक में नहीं की, नवे उद्देशक में की है।
प्रस्तुत उद्देशक के भाष्य एवं चूर्णि को पढ़ने से पाठक को तत्कालीन भारतीय संस्कृति के विषय में अच्छी जानकारी उपलब्ध हो सकती है। जैसे—उस समय की राजनैतिक परिस्थितियां क्या थीं? क्या-क्या व्यवस्थाएं होती थीं? राजा के व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित कार्यों में, अन्तःपुर में और अन्यान्य दायित्वों के निर्वहन में कितने और किस प्रकार के व्यक्ति नियोजित होते थे? राज्याभिषेक आदि के समय राजा के पास जाने अथवा न जाने से कौन-कौन-सी हानि हो सकती है? उस समय जाने वाले भिक्षु को क्या-क्या सावधानियां रखनी चाहिए? इत्यादि अनेक बातों की विस्तृत जानकारी निशीथभाष्य एवं उसकी चूर्णि में समुपलब्ध होती है।
भाष्यकार ने बताया है-उपयोग लगाकर राज्याभिषेक से पूर्व अथवा पश्चात् जाने वाला भिक्षु 'धर्मलाभ' कहकर राजा से कहे-प्रायोग्य की अनुज्ञा दें। यदि राजा पूछे कि 'प्रायोग्य क्या होता है?' अथवा 'मेरे पूर्ववर्ती राजाओं ने क्या दिया?' तो भिक्षु कहे
आहार-उवहि-सेज्जा, ठाण-णिसीयण-तुयट्टगमणादी।
थीपुरिसाण य दिक्खा, दिण्णा ने पुव्वरादीहिं॥ ऐसा सुनकर कोई प्रान्त प्रकृति वाला राजा कहे-दीक्षा को छोड़कर शेष सब की अनुज्ञा है क्योंकि यदि आप सबको दीक्षित कर लेंगे तो हम क्या करेंगे? इस प्रकार कहने पर उसे किस प्रकार समझाए, किस प्रकार विद्या आदि के द्वारा अनुकूल बनाए-इत्यादि संवाद का निशीथभाष्य एवं चूर्णि में बड़ा सुन्दर चित्रण किया गया है।
१. निभा. गा. २५७६