Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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निसीहज्झयणं
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उद्देशक ७ : टिप्पण वह कोलावास कहलाता है।)
९. सूत्र ८१,८२ ७. अण्डे, प्राण, बीज और हरित-चींटी आदि के अंडे, अमनोज्ञ पुद्गलों के अपहार एवं मनोज्ञ पुद्गलों के उपहार के कुंथु आदि प्राणी, शालि आदि बीज और दुर्वा आदि हरित कहलाते दो प्रकार हैं-शरीर एवं स्थान । शरीर के भीतर होने वाले अशुचि हैं। अनंकुरित बीज और अंकुरित हरित होता है।
पुद्गलों-श्लेष्म, पित्त आदि का पृथक्करण वमन, विरेचन आदि से ८. उत्तिंग-देशीशब्दकोश में इसके दोनों अर्थ उपलब्ध होते तथा बाह्य (अवयवों पर लगे हुए) पीव, शोणित आदि अशुचि हैं-१. चींटियों का बिल २. सर्पच्छत्र । निशीथचूर्णि में इसका अर्थ पदार्थों का पृथक्करण स्नान, उद्वर्तन आदि से संभव है। कीटिकानगर किया गया है।
जहां जहां स्त्री बैठती है, उस स्थान के रेत, कूड़े, कंकर ९.पनक-काई। यह पांचों वर्णकी, अंकुरित तथा अनंकुरित- आदि को संमार्जन, आलेपन, जल के आवर्षण एवं पुष्पोपचार के दोनों प्रकार की होती है।
द्वारा दूर करना अमनोज्ञ पुद्गलों का अपहार तथा वहां सुगन्धित १०. दकमृत्तिका-इसे दो पद मानकर-पानी और मिट्टी दो पदार्थों या मनोज्ञ ध्वनियों के द्वारा मनोज्ञ पुद्गलों को उत्पन्न करना अर्थ भी किए जा सकते हैं। यहां इसका अर्थ गीली मिट्टी कीचड़ शुभ पुद्गलों का उपहार कहलाता है। कुत्सित भावों से इस प्रकार किया गया है।
की प्रवृत्ति करने वाले को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता ११. मर्कटक-संतानक-मकड़ी का जाला।' ७. सूत्र ७६-७९
१०. सूत्र ८३-८५ प्रस्तुत आलापकद्वयी में कुत्सित मनोभावों के साथ मातृग्राम पशु अथवा पक्षी के साथ कुतूहल अथवा क्रीड़ा के भाव से के साथ की जाने वाली क्रियाओं के प्रायश्चित्त का निरूपण हुआ भी उनके अंगों का संचालन करना, उन्हें व्यथित करना वर्जित है तो है। सामान्य मनोभावों से भी स्त्री के साथ ये क्रियाएं श्रामण्य के अब्रह्म के संकल्प से अथवा 'एसा इत्थी' इस भाव से करना तो और लिए अहितकर हैं तो अब्रह्म-सेवन के संकल्प से की जाने पर बात भी कुत्सित प्रवृत्ति है। इससे आत्मविराधना, संयमविराधना एवं ही क्या?
प्रवचनविराधना भी होती है, अतः इन प्रवृत्तियों का प्रायश्चित्त ८. सूत्र ८०
है गुरु चातुर्मासिक। चिकित्सा के चार प्रकार हैं-१. वातिक चिकित्सा २. पैत्तिक शब्द विमर्श चिकित्सा ३. श्लेष्मिक चिकित्सा और ४. सान्निपातिक चिकित्सा। १. उव्विह-प्राकृत शब्दकोष पाइयसद्दमहण्णवो में उव्विह अब्रह्म के संकल्प से स्वयं की अथवा स्त्री की चिकित्सा धातु का एक अर्थ है ऊंचा फेंकना। निशीथचूर्णि में उज्जिहतिकरना वर्जनीय है। स्त्री की चिकित्सा करने पर उसके ज्ञातिजनों के उप्पाडेति (उत्पाटन करना) किया गया है। रोष और उससे होने वाले उड्डाह, अप्रभावना आदि दोष भी संभव २. पव्विह-प्रकृष्ट रूप से व्यथित करना, ताड़ना देना।
निशीथचूर्णि में इसका अर्थ प्रकृष्ट रूप से फेंकना अथवा पकड़ कर शब्द विमर्श
छोड़ना किया गया है।५ आउट्ट करना।
३. आलिंग-आलिंगन करना, स्पर्श करना।
१. निभा.२चू.पृ. ४०७-पिपीलियादिअंडेसु पडिबद्धं, पाणाकुंथुमादी,
सालगादी बीया, दुव्वादी हरिया। २. वही, भा. ३, चू. पृ. ३७६-सबीए.......अणंकुरियं, तं चेव
अंकुरभिन्नं हरितं। ३. दे. श. को. ४. (क) निभा. भा. २, चू.पृ. ४०७-उत्तिंगो कीलियावासे।
(ख) वही, भा. ३, चू.पृ. ३७६-कीडयणगरगो उत्तिंगो। ५. (क) वही, भा. २, चू.पृ. ४०७-पणगो उल्ली ।
(ख) वही, भ्रा. ३, चू.पृ. ३७६-पणगो पंचवण्णो संकुरो अणंकुरो वा।
वही, भा. २, चू.पृ. ४०७-दगं पाणीयं, कोमारा मट्टिया। ७. (क) वही-उल्लिया मट्टिया।
(ख) वही, भा. ३, चू.पृ. ३७६-दगमट्टिया चिक्खल्लो सचित्तो
मीसो वा। ८. वही, भा. २, चू.पृ. ४०७-कोलियापुडगो मक्कडसंताणओ। ९. वही, पृ. ४०९-चतुठिवधाए तिगिच्छाए-वादिय-पेत्तिय
संभिय-सण्णिवातियाए। १०. वही-जा वि तत्थ घंसणपीसण-विराहणा.....पदोसं गच्छेज्जा। ११. वही-आउट्टति णाम करेति। १२. वही, गा. २३१७-२३१९ व इनकी चूर्णि १३. पाइय. १४. निभा. भा. २, चू. पृ. ४१०-उज्जिहति-उप्पाडेति। १५. वही-पगरिसणं वहइ, खिवति पविहति । अहवा-प्रतीपं विहं पविहं
मुंचतीत्यर्थः। १६. वही, पृ. ४११-आलिंगनं स्पर्शनं ।