Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक ७ टिप्पण
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२९. आभरणविचित्र वस्त्र - पत्र, चन्द्रलेखा, स्वस्तिक आदि विविध नमूनों से मंडित वस्त्र ।
३०. उद्र-वस्त्र- कुत्ते की आकृति वाले जलचर प्राणी के चर्म से निर्मित वस्त्र । अथवा सिन्धुदेशीय मत्स्य के सूक्ष्म चर्म से निर्मित वस्त्र।"
३१ - ३३. गौरमृगाजिन, कृष्णमृगाजिन और नीलमृगाजिनक्रमशः सफेद, काले एवं नीले हरिण के चर्म से निर्मित वस्त्र ।
३४. पैश और पैशलेश - सिन्धु देश में होने वाले 'पेश' नाम के पशु की चर्म एवं उसके सूक्ष्म पक्ष्म से निर्मित वस्त्र क्रमशः पैश और पैशलेश कहलाते हैं। डॉ. जैन के अनुसार वैदिक युग में पेश के सुनहरे बेलबूटों वाला कलात्मक वस्त्र होता था, जिसे पेशकारी स्त्रियां बनाया करती थीं।"
आयारचूला की चूर्णि, अनुयोगद्वार की वृत्ति एवं बृहत्कल्पभाष्य की टीका आदि में भी इनमें से कुछ वस्त्रों के विषय में अच्छी जानकारी उपलब्ध होती है। विनयवस्तु, महावग्ग आदि बौद्ध ग्रन्थों तथा महाभारत, तैत्तरीय संहिता, कौटलीय अर्थशास्त्र आदि ग्रन्थों में भी वस्त्रों के विषय में जानकारी उपलब्ध होती है।
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जो भिक्षु इन महार्घ वस्त्रों का अब्रह्म सेवन के संकल्प से निर्माण, धारण या उपयोग करता है, वह गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त को प्राप्त करता है ।
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सूत्र १३
४. अक्ष को (अक्खंसि)
चूर्णिकार ने अक्ष शब्द के दो अर्थ किए हैं-१. कनपटी का भाग २. कोई भी इन्द्रियजात ।'
५. सूत्र १४-६७
पाद परिकर्म से लेकर शीर्षद्वारिका पर्यन्त सारा आलापक परस्पर-करण के रूप में चौथे उद्देशक में आया हुआ है। छठे उद्देशक में यही आलापक मातृग्राम के साथ मैथुन प्रतिज्ञा के विषय में
१. निभा. २ चू. पृ. ४०० - आभरणत्थपत्रिकं चंदलेहिक- स्वस्तिकबंटिक मोतिकमादीहिं मंडिता आभरणविचिता । २. वही - सुणगागिति जलचरा सत्ता तेसिं अजिणा उद्दा ।
३. आचू. टी. पृ. २६३ - उद्रा सिन्धुविषये मत्स्यास्तत्सूक्ष्मचर्मनिष्पन्नानि उद्राणि ।
४. वही, पृ. २६३-पेसाणि सिन्धुविषये एव सूक्ष्मचर्माणः पशवः राज्यर्मनिष्यन्नानि इति, पेसलाणित्ति तच्चर्मपक्ष्मनिष्यन्नानि ।
निसीहज्झयणं
स्वयं-करण के रूप में आया है। प्रस्तुत आलापक में उपर्युक्त दोनों दोषों का संयोग होने से दोनों से होने वाली दोषापत्ति स्वाभाविक है । मातृग्राम के लिए अभिरमणीय होने के संकल्प से परस्पर पादपरिकर्म, काय- परिकर्म, व्रण परिकर्म आदि कार्य करना मैथुन -संज्ञा के अंतर्गत है। अतः इनका प्रायश्चित्त गुरु चातुर्मासिक है। ६. सूत्र ६८-७५
अव्यवहित पृथिवी, सस्निन्ध पृथिवी, सरजस्कपृथिवी यावत् प्राण, बीज, हरित आदि से युक्त स्थान पर प्रमाद या अनाभोग से बैठना भी दोष का हेतु है, फिर मैथुन की प्रतिज्ञा से किसी मातृग्राम को बिठाने की तो बात ही क्या ? प्रस्तुत आलापक में निषिद्ध सारे ही पद अहिंसा एवं ब्रह्मचर्य दोनों महाव्रतों के लिए सद्योषाती हैं। अतः इनका आचरण करने वाले भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
शब्द विमर्श
१. अनन्तर्हित- अव्यवहित। जिस पृथिवी के अन्त जीवों से रहित हों, वह अन्तरहित कहलाती है जो अन्तरहित नहीं है, वह संपूर्णतया सचित्त होती है, मिश्र नहीं। अनन्त का एक अर्थ है। मध्यस्थित । मध्यस्थित पृथिवी शस्त्रोपहत न होने के कारण सचित्त होती है । ' परन्तु सूत्र ७२ में पुनः सचित्त पृथिवी पर बिठाने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है, अतः यहां अनन्तर्हित का अर्थ 'अव्यवहित' करना अधिक संगत है। तेरहवें उद्देशक की व्याख्या में भाष्य एवं चूर्णि में भी अनन्तर्हित का अव्यवहित अर्थ उपलब्ध होता है।
२. सस्निग्ध-जल से गीली, ईषद् आर्द्र । "
५. जैन आगम पृ. २०८, वैदिक युग में पेस के सुनहरे बेलबूंदों वाला कलात्मक वस्त्र होता था। पेशकारी स्त्रियां इसे बनाया करती थीं- वैदिक इण्डेक्स २, पृ. २२
६. निभा. भा. २, चू. पू. ४०० - अक्खा णाम संखाणियप्पदेसा । अहवा - अण्णतरं इंदियजायं अक्खं भण्णति ।
७. वही, भा. ३, पू. पू. ३७६- जीए पुढवीए अंता जीएहि रहिया सा
३. सरजस्क - सचित्त पृथ्वीकायिक रजों से स्पृष्ट । " ४. मृत्तिकाकृत - सचित्त मिट्टी से युक्त । १२ ५. लेलू - ढेला । यह देशी शब्द माना गया है। १३ ६. कोलावास - घुण से युक्त । १४ (जहां घुण रहते / होते हैं,
पुढवी अंतरहिया, पण अंतरहिया अणंतरहिया, सर्वा सचेतना इत्यर्थः । ८. वही, भा. २, चू. पू. ४०७ - सा सीतवातादिएहिं सत्थेहिं रहिता अशस्त्रोपहता।
९. वही, गा. ४२५८- अंतरहितानंतर...... चूर्ण-अंतरणं ववधाणं तेण रहिता निरंतरमित्यर्थः ।
१०. (क) वही, भा. २, चू. पृ. ४०७ - आउक्काएण पुण ससणिद्धा । (ख) वही, भा. ३, चू. पृ. ३७६ - ईसिं उल्ला ससणिद्धा । ११. वह भा. २, चू.पू. ४०७ - सतवीरयेण सरक्खा। १२. अर्थ समीक्षा की दृष्टि से मृत्तिकाकृत एवं सरजस्क पृथिवी एकार्थक प्रतीत होते हैं। विस्तार हेतु द्रष्टव्य-नव. पृ. ७१५ - पादटिप्पण (१) ।
१३. निभा. भा. २, चू. पृ. ४०७ - लेलू लेट्ठ ।
१४. वही - कोला घुणा, ताण आवासो घुणितं काष्ठमित्यर्थः ।