Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक ७: टिप्पण
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निसीहज्झयणं
आगम साहित्य में निर्ग्रन्थ एवं निर्ग्रन्थी के लिए पांच प्रकार के वस्त्र अनुज्ञात हैं। प्रस्तुत वस्त्र-पद में पैंतीस प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख हुआ है। आयारचूला में भी किंचित् पाठ-भेद एवं क्रम-भेद के साथ इन्हीं वस्त्रों का उल्लेख मिलता है। निशीथचूर्णि तथा आयारचूला की चूर्णि एवं टीका में इन वस्त्रों के विषय में विशद जानकारी उपलब्ध होती है। डॉ. जगदीश चन्द्र जैन ने भी अपनी पुस्तक 'जैन आगम साहित्य में भारतीय इतिहास' के चौथे अध्याय में पाद-टिप्पणों में अनेक जैनेतर ग्रन्थों महाभारत, कौटलीय अर्थशास्त्र आदि के उद्धरण दिए हैं। उनमें कतिपय उपयोगी उद्धरणों को यहां यथावत् ग्रहण किया जा रहा है।
१. आजिन-चर्म से निर्मित वस्त्र।२ चूहे आदि के चर्म से निष्पन्न वस्त्र।३
२. सहिण-सूक्ष्म वस्त्र।"
३. कल्य-स्निग्ध एवं लक्षणोपेत वस्त्र ।५ आयारचूला की टीका में शोभन (सुन्दर) वस्त्र के लिए कल्याण शब्द का प्रयोग
हुआ है।
जीयापोता के बीजों की माला। भावप्रकाश निघंटु के अनुसार जिनके लड़के पैदा होते ही मर जाते, वे जीयापोता के बीजों की माला पहनते थे।
१६. हरितमालिका-हरी वनस्पति से निर्मित माला, जैसे-विवाहों में लगाई जाने वाली वन्दनमालाएं।' २. सूत्र ४-९
प्रस्तुत सूत्र-षट्क में दो आलापक हैं-लोह-पद तथा आभरणपद । सामान्यतः धातुओं एवं आभूषणों का ग्रहण, निर्माण, धारण आदि परिग्रह है, अनावश्यक संग्रह है। अतः अपरिग्रह महाव्रत का अतिक्रमण है, अनाचार है। किसी स्त्री के प्रति आसक्त होकर अब्रह्म-सेवन के संकल्प से विविध प्रकार की धातुओं अथवा आभूषणों का निर्माण करना, उन्हें रखना अथवा उनको शरीर पर धारण करना (परिभोग करना या पहनना) मैथुन-संज्ञा के अन्तर्गत है। अतः सूत्रकार ने इन सभी प्रकार की प्रवृत्तियों के लिए गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान किया है। भाष्यकार ने लोहपद एवं आभरण-पद के आचरण से अनेक दोषों की संभावना अभिव्यक्त की है, यथा-सविकारता, स्वयं के व दूसरे के मोह का उद्दीपन, आत्म-संयम-विराधना, वध, बंधन आदि।' शब्द विमर्श
लोह-किसी भी प्रकार की धातु, जैसे-स्वर्णधातु, रजतधातु आदि।
हार-अठारह लड़वाला। अर्धहार-नौ लड़वाला। वलय-कड़ा। तुडिय-बाहुरक्षिका, भुजबन्द। केयूर-बाजूबंद (हाथ का आभूषण)। पट्ट-चार अंगुल प्रमाण स्वर्णपट्ट।' प्रलम्बसूत्र-नाभि तक लटकने वाली माला।' निभा. २ चू.पृ. ३९६-रुद्दक्खेहि वा पुत्तंजीवगेहि । २. भा. नि., पृ. ५३१। ३. निभा. भा. २, चू.पृ. ३९६-विवाहेसु अणेगविहेसु अणेगविहो
वंदणमालियाओ कीरंति। ४. वही, गा. २२९३
सविगारो मोहुदीरणा य वक्खेव रागऽणाइण्णं । गहणं च तेण दंडिय-दिटुंतो नंदिसेणेण ।। अचि. ४/१०५-सर्वञ्च तैजसं लोहम्।
निभा २, चू.पृ. ३९८-अट्ठारसलयाओ हारो, णवसु अट्टहारो। ७. वही-तुडियं बाहुरक्खिया। ८. वही-चउरंगुलो सुवण्णओ पट्टो। ९. वही-नाभिं जा गच्छइ सा पलंबा। १०. (क) ठाणं ५।१९०
(ख) कप्पो २/२८ ११. आचू. ५११४,१५
४. सहिण-कल्लाण-सूक्ष्म एवं लक्षणोपेत वस्त्र।"
५.आज-बकरी के सूक्ष्म रोम से बना वस्त्र ।“निशीथचूर्णि के अनुसार तोसलि देश के बकरों के खुरों में लगी शैवाल से निर्मित वस्त्र 'आज' कहलाता है।९
६. काय-प्राकृत शब्दकोष में काय शब्द देश का तथा वनस्पति (काला अम्बर) का वाचक माना गया है। निशीथचूर्णि के अनुसार काय देश में जिस तालाब में काकजंघ नामक पौधे के मणि (अवयवविशेष) गिरते हैं, उससे रंगे हुए वस्त्र काय-वस्त्र कहलाते हैं। शीलांकसूरि के अनुसार किसी देश में इन्द्रनीलवर्ण वाला कपास होता है, उससे निष्पन्न वस्त्र कायक कहलाते हैं।२२ १२. निभा. २, चू.पू. ३९९ । १३. आचू. टी. पृ. २६३-आजिनानि मूषकादिचर्मनिष्पन्नानि । १४. निभा. २, चू.पृ. ३९९ १५. वही-कल्लाणं स्निग्धं, लक्षणयुक्तं वा। १६. आचू. टी. पृ. २६३-कल्याणानि-शोभानानि । १७. आचू. टी. पृ. २६३-श्लक्ष्णाणि-सूक्ष्माणि च तानि
वर्णाच्छव्यादिभिश्च कल्याणानि । १८. आचू. टी. २६३-क्वचिद्देशे अजाः सूक्ष्मरोमवत्यो भवन्ति,
तत्पक्ष्मनिष्पन्नानि आजकानि भवन्ति। १९. निभा. २, चू.पृ. ३९९-आयं णाम तोसलिविसए सीयतलाए अयाणं
खुरेसु सेवालतरिया लग्गति, तत्थ वत्था कीरंति। २०. पाइय. २१. निभा. २, चू.पृ. ३९९-कायाणि कायविसए काकजंधस्स जहिं
मणी पडितो तलागे तत्थ रत्ताणि जाणि ताणि कायाणि भण्णंति। २२. आचू. टी. पृ. २६३-क्वचिद्देशे इन्द्रनीलवर्णः कर्पासो भवति, तेन
निष्पन्नानि कायकानि।