Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आमुख
प्रस्तुत उद्देशक में मुख्य प्रतिपाद्य दो हैं ब्रह्मचर्य-विराधना का प्रायश्चित्त और राजपिण्ड-सेवन का प्रायश्चित्त । पूर्ववर्ती दो उद्देशकों के समान आठवें उद्देशक के पूर्वार्द्ध का केन्द्रीय तत्त्व है-ब्रह्मचर्य । भिक्षु ब्रह्मचर्य की सुरक्षा की दृष्टि से अकेली स्त्री के साथ कहां, क्या न करे इसका विस्तृत निर्देश उपलब्ध होता है। भाष्यकार कहते हैं-माता के साथ भी अकेले साधु के लिए धर्मकथा करना वर्जित है तो फिर तरुण स्त्रियों के साथ अनार्य कामकथा आदि की तो बात ही क्या? स्त्री की ओर से भिक्षु अपनी दृष्टि को उसी प्रकार त्वरा के साथ प्रतिसंहृत कर ले, जैसे ग्रीष्म ऋतु की तपती दुपहरी में भास्कर को देख कर व्यक्ति अपनी दृष्टि को हटा लेता है। अकेला भिक्षु यदि अकेली स्त्री के साथ आहार, विहार, उच्चार आदि का परिष्ठापन, स्वाध्याय अथवा किसी प्रकार की अनार्य, असभ्य कथा करता है तो उसका चित्त उन्मार्ग की ओर उन्मुख हो सकता है, उसका स्वयं का ब्रह्मचर्य असुरक्षित हो जाता है तथा अन्य लोगों में भी शंका आदि दोष उत्पन्न हो सकते हैं। इसी प्रसंग में सूत्रकार ने केवल स्त्रियों के मध्य धर्मकथा करने, निर्ग्रन्थी के साथ अपहृत मनःसंकल्प होकर आहार, विहार आदि करने वाले भिक्षु के लिए भी प्रायश्चित्त का कथन किया है। .. एकाकिनी स्त्री के साथ एकाकी भिक्षु के आहार, विहार के विषय में भाष्यकार ने अनात्मवशता, रोग, उपसर्ग, नगररोध,
अटवी, संभ्रम, भय, वर्षा एवं दीक्षा आदि अपवादों का उल्लेख किया है, जिनमें उपसर्ग के प्रसंग में शशक, भसक एवं सुकुमालिका की कथा का विस्तार से कथन करते हुए मानवीय मनोविज्ञान एवं काम-विडम्बना का सुन्दर चित्रण किया है। इसी प्रकार नगररोध में भी भिक्षु नगर के आठ भाग कर भिक्षा करे, किन्तु मासकल्प की हानि न करे, साधु-साध्वियों के एकत्र वास की समस्याएं, उसके कारण एवं सावधानियों आदि का भी भाष्यकार ने अच्छा वर्णन किया है। कदाचित् किसी छिन्नमडंब
आदि में स्वयं की मां, बहिन आदि कोई अशंकनीय स्त्री दीक्षा हेतु निवेदन करे और भिक्षु उसे दीक्षित करना चाहे तो उसकी तथा स्वयं की किस प्रकार परीक्षा करे, किस प्रकार उसके निर्वाह की व्यवस्था का सम्यग् ध्यान देकर उसे दीक्षित एवं शिक्षित करे तथा गुरुचरणों में पहुंचाए-इत्यादि अनेक बातों का भी बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है।
प्रस्तुत (आठवें) उद्देशक के उत्तरार्द्ध का मुख्य प्रतिपाद्य राजपिण्ड से संबद्ध है। महोत्सवों, मैलों आदि में जहां भी राजपिण्ड हो-चाहे केवल राजा की ओर से भोज आदि दिया जाए अथवा राजा की अंशिका हो, यदि भिक्षु वहां आहार, पानक आदि ग्रहण करता है तो वे ही दोष संभव हैं, जो राजपिण्ड को ग्रहण करने से संभव हैं। इसी प्रकार क्षत्रिय, मूर्धाभिषिक्त राजा उत्तरशाला अथवा उत्तरगृह में गया हुआ हो, अश्वशाला, गजशाला, मंत्रशाला, गुह्यशाला आदि में गया हुआ हो, वहां दिए जाने वाले अशन, पान आदि को ग्रहण करने तथा राजा के द्वारा दिए गए अनाथपिण्ड, कृपणपिण्ड, वनीपकपिण्ड आदि को ग्रहण करने से भी अनेक दोषों की संभावना रहती है अतः प्रस्तुत उद्देशक में इन सबके लिए अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है।
१. निभा. गा. २३४४