Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक ७ : सूत्र ५७-६२
१५६
निसीहज्झयणं अच्छि -पदं
अक्षि-पदम्
अक्षि-पद ५७. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण- यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया ५७. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर
वडियाए अण्णमण्णस्स अच्छीणि अन्योन्यस्य अक्षिणी आमृज्याद् वा अब्रह्म-सेवन के संकल्प से परस्पर एक दूसरे आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, प्रमृज्याद्वा, आमाजन्तं वा प्रमार्जन्तं वा भिक्षु की आंखों का आमार्जन करता है आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा स्वदते ।
अथवा प्रमार्जन करता है और आमार्जन सातिज्जति॥
अथवा प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करता है।
५८. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण- यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया वडियाए अण्णमण्णस्स अच्छीणि ___ अन्योन्यस्य अक्षिणी संवाहयेद् वा संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा, परिमर्दयेवा, संवाहयन्तं वा परिमर्दयन्तं संवाहेंतं वा पलिमहेंतं वा वा स्वदते। सातिज्जति॥
५८. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर
अब्रह्म-सेवन के संकल्प से परस्पर एक दूसरे भिक्षु की आंखों का संबाधन करता है अथवा परिमर्दन करता है और संबाधन अथवा परिमर्दन करने वाले का अनुमोदन करता
५९. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण-
वडियाए अण्णमण्णस्स अच्छीणि तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा अब्भंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा, अब्भंगेंतं वा मक्खेंतं वा सातिज्जति॥
यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया ५९. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अन्योन्यस्य अक्षिणी तैलेन वा घृतेन वा अब्रह्म-सेवन के संकल्प से परस्पर एक दूसरे वसया वा नवनीतेन वा अभ्यज्याद् वा भिक्षु का तैल, घृत, वसा अथवा मक्खन प्रक्षेद, अभ्यञ्जन्तं वा म्रक्षन्तं वा स्वदते। से अभ्यंगन करता है अथवा प्रक्षण करता
है और अभ्यंगन अथवा म्रक्षण करने वाले का अनुमोदन करता है।
६०. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण- यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया ६०. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर
वडियाए अण्णमण्णस्स अच्छीणि अन्योन्यस्य अक्षिणी लोध्रेण वा कल्केन अब्रह्म-सेवन के संकल्प से परस्पर एक दूसरे लोद्धेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वा चूर्णेन वा वर्णेन वा उल्लोलयेद् वा । भिक्षु की आंखों पर लोध, कल्क, चूर्ण वण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वदे॒ज्ज उद्वर्तेत वा, उल्लोलयन्तं वा उद्वर्तमानं अथवा वर्ण का लेप करता है अथवा उद्वर्तन वा, उल्लोलेंतं वा उव्वटेंतं वा वा स्वदते।
करता है और लेप अथवा उद्वर्तन करने सातिज्जति॥
वाले का अनुमोदन करता है।
६१. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण- यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया
वडियाए अण्णमण्णस्स अच्छीणि अन्योन्यस्य अक्षिणी शीतोदकविकृतेन वा सीओदग-वियडेण वा उसिणोदग- उष्णोदकविकृतेन वा उत्क्षालयेद् वा वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा प्रधावेद् वा, उत्क्षालयन्तं वा प्रधावन्तं पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोएतं वा स्वदते । वा सातिज्जति॥
६१. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर
अब्रह्म-सेवन के संकल्प से परस्पर एक दूसरे भिक्षु की आंखों का प्रासुक शीतल जल से अथवा प्रासुक उष्ण जल से उत्क्षालन करता है अथवा प्रधावन करता है और उत्क्षालन अथवा प्रधावन करने वाले का अनुमोदन करता है।
६२. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहण- यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया ६२. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर
वडियाए अण्णमण्णस्स अच्छीणि अन्योन्यस्य अक्षिणी 'फु मेज्ज' अब्रह्म-सेवन के संकल्प से परस्पर एक दूसरे