Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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निसीहज्झयणं
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वाले बांस को वेत्र और स्थल पर उगने वाले बांस को वेणु कहा जाता है।
९. सूत्र २५-३३
प्रस्तुत आलापक में सचित, एक वर्ण वाले तथा विविध वर्ण वाले काष्ठदंड, वेत्रदंड और वेणुदंड के ग्रहण, धारण एवं परिभोग प्रायश्चित्त का कथन किया गया है। सचित्त दंड का ग्रहण, धारण आदि जीवोपघात का हेतु होने से अहिंसा महाव्रत की विराधना तथा चित्र एवं विचित्र दंड का ग्रहण, धारण आदि विभूषा का हेतु होने से ब्रह्मचर्य महाव्रत के उपघात का हेतु है अतः भिक्षु को इस प्रकार के दंडों का ग्रहण भी नहीं करना चाहिए, धारण एवं की तो बात ही क्या ? शब्द-विमर्श
१. चित्र - एक वर्ण वाला।
२. विचित्र - नाना वर्ण वाला ।
३. करण-दूसरे के हाथ से ग्रहण करना । *
४. धारण- अपरिभुक्त रूप में रखना ।
१०. सूत्र ३४-३५
प्रस्तुत सूत्रद्वयी में व्यावहारिक प्रतिक्रियाओं को ध्यान में रख कर नए बसे हुए आश्रयस्थानों में जाकर अशन, पान आदि लेने वाले भिक्षु के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया गया है । नवनिवेशित गांव, नगर आदि में भिक्षु गोचरी हेतु प्रविष्ट होते हैं तो कोई भद्र गृहस्थ सोचता है - साधु पधार गए, मंगल उद्घाटन हो गया - ऐसा सोच वहां आवास करने लग जाता है। भविष्य में लाभ आदि होता देख वह मंगल बुद्धि का प्रवर्तन करता है। फलतः भिक्षु वहां गृहस्थों के निवास, आरम्भ समारम्भ आदि अधिकरण का निमित्त बनता है। दूसरी ओर प्रान्त गृहस्थ मुनि को प्रविष्ट होता देख कर सोचता है - पहले पहल ये मुंडित मस्तक मिल गए, यहां सुख कहां से होगा ? वह अन्य लोगों को भी वहां निवास करने से रोक देता है। अतः मुनि को नवनिवेशित नगर आदि में तथा लोहे आदि की खानों में गोचरी जाने का निषेध किया गया है। साथ ही खानों में सचित्त पृथिवीकाय के संरंभ-समारंभ, सोने, चांदी आदि के हरण से शंका आदि दोष भी संभव हैं।" शब्द विमर्श
ग्राम, नगर आदि बस्ती के प्रकार हैं, निशीथ चूर्णिकार के अनुसार इनका संक्षिप्त अर्थ इस प्रकार है
१. निभा. भा. २, चू. पृ. ३८-वेत्तो पाणियवंसो, वेणू थलवंसो । २. वही, पृ. ३२७ - चित्रकः एकवर्णः ।
३. वही विचित्रो नानावर्णः ।
४. वही, पृ. ३२६ - करणं परहस्ताद् ग्रहणमित्यर्थः ।
५.
वही - ग्रहणादुत्तरकालं अपरिभोगेण धरणमित्यर्थः ।
उद्देशक ५ : टिप्पण
१. ग्राम - जहां कर लगते हैं।
२. नगर- जहां कर नहीं लगता ।
३. खेट - जिसके चारों ओर धूलि का प्राकार हो।
४. कर्बट -कुनगर (जहां क्रय-विक्रय न हो) कर्बट कहलाता
है।
५. मडंब - जहां ढाई योजन तक अन्य गोकुल आदि न हो । ६. द्रोणमुख - जहां जल और स्थल- दोनों ओर से मुख ( आगमन एवं निर्गमन का मार्ग) हो ।
७. पत्तन-जल मध्यवर्ती भूभाग जलपत्तन और निर्जल भूभाग स्थलपत्तन कहलाता है। पूरी आदि जलपत्तन और आनन्दपुर आदि स्थलपत्तन हैं।
८. आश्रम - तापसों का निवास स्थान आदि आश्रम कहलाते
९. निवेशन - सार्थ का निवास स्थान ।
१०. निगम-जहां केवल व्यापारी वर्ग निवास करता है ।
११. संबाध - वर्षाकाल में कृषि करके कृषक लोग धान्य का वहन कर जहां दुर्ग आदि में ले जाते हैं, वह स्थान ।
१२. राजधानी - जहां राजा अधिष्ठित हो - निवास करे वह
स्थान ।"
१३. सन्निवेश-यात्रा से आए हुए मनुष्यों के रहने का स्थान । (विस्तृत एवं तुलनात्मक जानकारी हेतु द्रष्टव्य ठाणं २ / ३९० का टिप्पण)
१४. अयः आकर यावत् वज्राकर-लोहा, तांबा, त्रपु आदि जहां पैदा होते हों, वे स्थान क्रमशः अयः आकर (लोहे की खान) यावत् वज्राकर कहलाते हैं। "
११. सूत्र ३६-६०
प्रस्तुत वीणा पद में दो आलापक हैं। प्रथम आलापक में 'मुंहवीणियं करेति' इत्यादि बारह सूत्रों में मुंह, दांत, होठ आदि शरीरावयवों तथा पत्र, पुष्प, फल आदि वृक्षावयवों से विकृत शब्दों को पैदा करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है तथा अग्रिम आलापक में उन्हीं शरीरावयवों तथा वृक्षावयवों से वादित्र - शब्दों को उत्पन्न करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है । शरीर के विभिन्न अवयवों - मुंह, नाक, दांत, होठ आदि से तथा वृक्ष के पत्र, पुष्प आदि अवयवों से विकृत शब्दों को उत्पन्न करना, विभिन्न वाद्ययंत्रों की ध्वनि निकालना विकृत एवं असंयत चित्तवृत्ति का द्योतक है। इससे स्वयं के साथ६. वही, गा. २००५
७.
वही, गा. २०११
८. वही. भा. २, चू. पृ. ३२८
९. वही, भा. ३, चू. पू. ३४६, ३४७
१०. वही, भा. २, चू. पू. ३२९