Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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निसीहज्झयणं
११५
शब्द विमर्श
१.परिभिंदिय-तोड़ कर । पात्र को खंड-खंड करना परिभेदन
२. पलिछिंदिय-फाड़ कर । वस्त्र आदि को शस्त्र आदि से फाड़ना परिछेदन है।
३. पलिभंजिय-टुकड़े कर । दंडे, लाठी आदि का हाथ से आमोटन करना परिभंजन है। १५. सूत्र ६८
___ दंड सहित रजोहरण बत्तीस अंगुल लम्बा तथा हस्तपूरिम (हाथ में आए उतनी मोटाई वाला) होना चाहिए। रजोहरण की दशा मृदु एवं अशुषिर होनी चाहिए। कठोर एवं शुषिर दशा वाले रजोहरण से प्रमार्जन करने पर संयम-विराधना होती है। वर्षारात्र में दो तथा ऋतुबद्धकाल में एक रजोहरण रखने का विधान
बत्तीस अंगुल से अधिक लम्बा अथवा मोटा रजोहरण रखने पर अतिभार आदि से षड्जीवनिकाय की विराधना, भाजनविराधना एवं आत्मविराधना आदि दोषों की संभावना रहती है। अतः मुनि को समुचित लम्बाई एवं मोटाई वाला रजोहरण धारण करना चाहिए। १६. सूत्र ६९
रजोहरण की फलियां अत्यन्त सूक्ष्म (पतली) होने से आपस में उलझती रहती हैं, फलतः वह दुष्प्रतिलेख्य हो जाता है। वे दुर्बल होने से टूट जाती हैं। अतः मुनि को सूक्ष्म रजोहरण-शीर्ष बनाने का निषेध है। शब्द विमर्श ___ रजोहरण शीर्ष-रजोहरण की दशा-फलियां। १७. सूत्र ७०
कंडूसक बन्धन का अर्थ है-रजोहरण को सूती या ऊनी वस्त्र से वेष्टित कर उस पर ऊनी डोरा बांधना। कंडूसक बंधन अनुपयोगी है तथा अतिरिक्त उपधि होने से अधिकरण है। इसको खोलने, १. निभा. २, चू.पृ. ३६४-खंडाखंडिकरणं पलिभेओ भण्णति । २. वही, पृ. ३६५-पलिछिंदिय शस्त्रादिना। ३. वही-हत्थेहिं आमोडणं पलिभंजणं। ४. वही. गा. २१७० व उसकी चूर्णि ५. वही, गा. २१६९ ६. वही, गा. २१६८ ७. वही, गा. २१७४ सचूर्णि।
वही, भा. २ चू.पृ. ३६६-रयहरणसीसगा दसाओ। वही, पृ. ३६७-कंडूसगबंधो णाम जाहे रयहरणं तिभागपएसे खोमिएण उण्णिएण वा चीरेण वेढियं भवति, ताहे उण्णिय-दोरेण
तिपासियं करेति, तं चीरं कंडूसगपट्टो भण्णति । १०. वही, गा. २१७६ व उसकी चूर्णि
उद्देशक ५ : टिप्पण बांधने आदि में समय का अपव्यय होता है अतः निष्कारण कंडूसक बंधन से बांधने का निषेध है। अतः इसके लिए लघुमासिक प्रायश्चित्त का विधान है। १८. सूत्र ७१-७३
रजोहरण को वाम पार्श्व से बांधना अविधि बंधन है। रजोहरण को अविधि से बांधना, एक पार्श्व से, एक बंधन से बांधना अथवा तीन से अधिक बंधन लगाना अनाचीर्ण है, निषिद्ध है। १२ अतः इन सभी प्रवृत्तियों के लिए लघुमासिक प्रायश्चित्त का विधान है। १९. सूत्र ७४
आगम साहित्य में रजोहरण के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं-१. और्णिक २. औष्ट्रिक (ऊंट के केशों से निष्पन्न) ३. सानक (सन से निष्पन्न) ४. वच्चापिच्चिय-वल्वज नाम की मोटी घास को कूट कर बनाया हुआ तथा (५) मुंजापिच्चिय-मूंज को कूट कर बनाया हुआ।१३ उनसे भिन्न द्रव्य से निर्मित, बहुमूल्य, दुर्लभ, वर्णाढ्य रजोहरण को धारण करने से आज्ञाभंग, मिथ्यात्व आदि दोष आते हैं। रागोत्पत्ति होने से संयमविराधना होती है अतः तीर्थंकर एवं गुरु के द्वारा अननुमत रजोहरण रखने का निषेध है।४
विस्तार हेतु द्रष्टव्य निशीथभाष्य गा. २१८१-२१८३ । शब्द विमर्श
अनिसृष्ट-तीर्थंकरों के द्वारा अदत्त ५ अथवा गुरुजनों द्वारा अननुज्ञात । २०.सूत्र ७५
व्युत्सृष्ट का अर्थ है-आत्मावग्रह से परे। यहां रजोहरण की अपेक्षा से चारों ओर एक हाथ की दूरी अव्युत्सृष्ट कही गई है।८ रजोहरण मुनि का लिंग है। वह सदा उसके पास रहना चाहिए। यदि वह उसके हाथ की पहुंच से बाहर हो तो यथावसर प्रमार्जन न करने से आत्मविराधना एवं संयमविराधना होती है। अतः रजोहरण को दूर रखना प्रायश्चित्तार्ह माना गया है। भाष्यकार के अनुसार ११. वही, भा. २ चू.पृ. ३६७-अपसव्वादि अविधिबंधो। १२. वही, पृ. ३६७,३६८ १३. (क) ठाणं ५।१९१
(ख) कप्पो २०२९ १४. निभा. गा. २१८३ १५. वही, भा. २ चू.पृ. ३६८-अणिसटुं णाम तित्थकरेहिं अदिण्णं । १६. वही-जं गुरुजणेण नो अणुण्णायं तं अणिसिटुं। १७. वही, गा. २१८५ १८. वही, भा. २, चू.पृ. ३६९-इह पुण रयोहरणं पडुच्च समंततो हत्थो,
हत्थाओ परंण पावति त्ति वोसटुं भण्णति। १९. वही, गा. २१८६