Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक ३ : टिप्पण
मलहम आदि के लेप का भी प्रायश्चित्त बतलाया गया है। प्रश्न होता है कि भयंकर वेदना से पीड़ित होने पर मुनि क्या करे? सूत्रकार कहते हैं-वेदना को उत्पन्न हुआ जानकर भी मुनि समतापूर्वक अदीनभाव से प्रसन्नमना सहन करे। जिनकल्प, यथालन्दक आदि के लिए सर्वथा रोग का प्रतिकार न करने का विधान है। वैसे ही समाधि, सूत्रार्थ की अव्यवच्छित्ति आदि कारणों से स्थविरकल्पी के लिए यतनापूर्वक चिकित्सा भी विहित मानी गई है। अतः प्रस्तुत सन्दर्भ में प्रायश्चित्त का विधान अयतना के लिए है-ऐसा माना जा सकता है। शब्द विमर्श
१. व्रण-खुजली, दाद आदि से हुआ घाव या शस्त्र आदि के कारण हुआ घाव।
२. गंड-गंडमाला। ३. पिलग-फोड़ा। ४. अरइय-फुसी। ५. असिय-अर्श या मस्सा। ६. भगंदल-भगन्दर ।
७. जात-प्रकार, यथा शस्त्रजात अर्थात् विभिन्न प्रकार के शस्त्र, आलेपनजात विभिन्न प्रकार के आलेपन ।
८. आच्छेदन-विच्छेदन-एक बार या अल्प सा छेदन आच्छेदन, अनेकशः या अच्छी तरह छेदन विच्छेदन कहलाता है।"
९.निर्हरण-विशोधन-रक्त, पीव को कुछ मात्रा में निकालना निर्हरण एवं सम्पूर्णतया निकालना विशोधन कहलाता है।१२ ९. सूत्र ४०
प्रस्तुत सूत्र में अपान तथा कुक्षि की कृमि को अंगुली से निकालने का प्रायश्चित्त है क्योंकि इससे उनकी विराधना संभव है। भाष्यकार के अनुसार कृमि निकालने के निष्कारण, सकारण, विधि और अविधि से चार भंग हो जाते हैं। प्रस्तुत १. उत्तर. २॥३३ तेगिच्छं नाभिनन्देज्जा। २. निभा. गा. १५०४
अव्वोच्छित्तिणिमित्तं, जीयट्ठी वा समाहिहेतुं वा।
पमज्जणादी तु पदे, जयणाए समायरे भिक्खू॥ ३. (क) वही, १५०७णिक्कारणे ण कप्पति, गंडादीएस छेअधुवणादी। आसज्ज पुण कारणं, सो चेव गमो हवति तत्थ ।। (ख) वही, भा. २ चू. पृ. २१६-कारणे पुण आसज्ज एसेव
कमो-सत्थादिणा उत्तरोत्तरपयकरणं॥ ४. वही, पृ. २१४-कायव्वणो दुविधो-तत्थेव काये उब्भवो जस्स
दोसो य तब्भवो, आगंतुएण सत्थातिणा कओ जो सो आगंतुगो। ५. वही, पृ. २१५-गच्छतीति गंडं, तं च गंडमाला। ६. वही-पिलगं तु पादगतं गंडं। ७. वही-अरतितं वा अरतितो वा जंण पच्चति ।
निसीहज्झयणं सूत्रगत प्रायश्चित्त कारण में अविधि से कृमि निकालने के विषय में है।
श्रीमज्जयाचार्य ने इस विषय पर टिप्पणी करते हए लिखा है-आपरी साता बांछै, जीवां रो मरणो वांछै नहीं। उन्होंने लिखा-कृमि निकालने के लिए जुलाब लेने वाला यह जानता है कि इससे कृमि की विराधना होगी पर वह विराधना का कामी नहीं। अतः प्रायश्चित्तभाक् नहीं।" इस आधार पर कहा जा सकता है कि भिक्षु समाधि के लिए यतनापूर्वक कृमि का निष्कासन करे तो दोष नहीं। भाष्यकार ने भी सूत्रार्थ की अव्यवच्छित्ति, समाधिमय जीवन आदि के लिए इसे अनुज्ञात माना है। भाष्य साहित्य में इस विषय में यतनाविषयक निर्देश मिलता है। शब्द विमर्श
पालु-अपान। १०.सूत्र ४१
प्रस्तुत सूत्र में बढ़ी हुई नखशिखा को काटने एवं संवारने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। प्रस्तुत आगम के प्रथम उद्देशक तथा आयारचूला के सातवें अध्ययन से यह स्पष्ट है कि भिक्षु के लिए नखच्छेदनक लेना, नख काटना और गृहस्थ को नखच्छेदन को प्रत्यर्पित करना विहित है। इन दोनों प्रसंगों पर विचार करते हैं तब ऐसा प्रतीत होता है कि विभूषा के लिए नखशिखा को काटना एवं संवारना निषिद्ध है। हरिभद्रसूरि के अनुसार स्थविरकल्पिक मुनि प्रमाणयुक्त नख रखते थे, ताकि अंधकार में दूसरे साधुओं के शरीर में न लग जाएं। जिनकल्पिक मुनि के नख दीर्घ होते थे। यहां नख काटने का प्रयोजन है अहिंसा।
निशीथभाष्यकार के अनुसार हाथों के सुदीर्घ नख से पात्र के लेप का विनाश होने की संभावना हो, खुजलाने से शरीर पर घाव होने की संभावना हो, दीर्घ नखों में अशुचि रह जाने से आत्मविराधना एवं प्रवचन-विराधना हो, नखों में फंसी हुई रजों से चर्पघात ८. वही-असी अरिसा ता य अहिट्ठाणे णासाते व्रणेसु वा भवंति। ९. वही-भगंदरं अप्पण्णतो अहिट्ठाणे क्षतं किमियजालसंपण्णं भवति । १०. वही-जातमिति प्रकारप्रदर्शनार्थम्। ११. वही-एक्कसि ईषद् वा आच्छिंदणं, बहुवारं सुट्ठ वा छिंदणं
विच्छिंदणं। १२. वही-णीहरति णाम णिग्गलति। अवसेसावयवा फेडणं विसोहणं
भण्णति। १३. वही, गा. १५११। १४. सन्देह विषौषधि प. ८४-८६ १५. निभा. गा. २८८। १६. दसवे. ६.६४ १७. दसवे. हा. टी. प. २०६-दीर्घनखवतो हस्तादौ जिनकल्पिकस्य,
इतरस्य तु प्रमाणयुक्ता एव नखा भवन्ति यथाऽन्यसाधूनां शरीरेषु तमस्यपि न लगन्ति।