Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक ४: टिप्पण
निसीहज्झयणं
बचाव। सचित्त वनस्पति, सचित्त पृथिवी तथा सचित्त पानी से भाष्यकार के अनुसार प्रस्तुत संपूर्ण आलापक की व्याख्या संसृष्ट हाथ या पात्र से भिक्षा ग्रहण करने पर पुरःकर्म एवं असंसृष्ट तृतीय उद्देशक के समान ज्ञातव्य है। निशीथ की हुण्डी के अनुसार हाथ या पात्र से लेपकृत आहार लेने पर पश्चात्कर्म दोष संभव हैं। स्वयं के पाद-प्रमार्जन आदि के समान यहां भी प्रायश्चित्त का हेतु
विस्तार हेतु द्रष्टव्य दसवे. ५।१।३३-३४ के टिप्पण १२५- 'अविधि' (अयतना) अथवा प्रयोजनरहितता है। १३७)।
१४. सूत्र १०८ शब्द विमर्श
अप्रतिलेखित उच्चारप्रस्रवण भूमि पर रात्रि या विकाल बेला १. उदओल्ल-सचित्त जल से गीले।
में उच्चार-प्रस्रवण का परिष्ठापन करने पर आत्मविराधना एवं २. अमत्र-मिट्टी का पात्र ।
संयमविराधना संभव है अतः पहले ही उच्चारप्रसवण भूमि का ३. भाजन-कांस्यमय पात्र ।
प्रतिलेखन कर लेना चाहिए।' १२. सूत्र ३९-५३
रात्रि या विकाल बेला में उच्चारप्रसवण की बाधा संभव है। प्रस्तुत उद्देशक में प्रथम आलापक में अठारह तथा इस उस समय कहां उनका विसर्जन या परिष्ठापन किया जाए-इसलिए आलापक में पन्द्रह-इस प्रकार ये आत्मीकरण, अर्चीकरण एवं आवश्यक है कि चतुर्थ प्रहर का चौथा भाग अवशेष हो अर्थात् पौन अर्थीकरण से सम्बन्धित ३३ सूत्र हो जाते हैं। इन सूत्रों की संख्या पौरुषी बीत जाने पर यतनावान भिक्षु उच्चार-प्रस्रवण भूमि की एवं क्रम में अनेक प्रतियों में भिन्नता है। पूर्ववर्ती आलापक में प्रतिलेखना करे। इसे व्यवहार की भाषा में दिन की अन्तिम 'दो घड़ी देशारक्षक एवं सर्वारक्षक सम्बन्धी छहों सूत्र आए हुए हैं, फिर यहां पहले भी कहा जा सकता है। पाछली बे घड़ी दिन थकां उचारपासवण पुनरावृत्ति क्यों? तथा समान विषय एवं प्रायश्चित्त वाले होने पर भी नी जागां न पडिलेहे।' इनका पृथक्करण क्यों? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर भाष्य एवं चूर्णि में शब्द विमर्श उपलब्ध नहीं है। ज्ञातव्य है कि पूर्ववर्ती आलापक में क्रम एवं साणुप्पए-'साणुप्पअ' सामयिकसंज्ञा है। इसका अर्थ है-दिन संख्या भाष्य एवं चूर्णि के अनुसार दी गई है तथा इस आलापक में की चतुर्थ प्रहर का चौथा भाग अवशेष रहे वह समय। चूर्णिकार के उल्लेख के अनुसार पन्द्रह सूत्रों का पूर्वोक्त क्रम से १५. सूत्र १०९ संपादन किया गया है।
यदि भिक्षु का किसी स्थान के भीतरी भाग में निवास हो तो १३. सूत्र ५४-१०७
उसके बहिर्भाग में आसन्न, मध्य और दूर-तीन, और बाहरी भाग में प्रस्तुत आलापक में पाद-प्रमार्जन से 'सीसदुवारिया' पर्यन्त निवास हो तो निवासभूमि से आगे आसन्न, मध्य और दूर-तीन चौवन सूत्र होते हैं। आयारचूला में अन्योन्य क्रिया के प्रसंग में इस ___उच्चार-भूमियों एवं तीन प्रस्रवण-भूमियों का प्रतिलेखन करणीय है। प्रकार के छत्तीस सूत्र उपलब्ध होते है। निशीथ चूर्णि में तृतीय चूर्णिकार के अनुसार तीन के कथन से बारह उच्चार भूमियों एवं बारह उद्देशक के समान ५३ सूत्रों (४।४९-१०१) का पाठ लेते हुए भी प्रसवणभूमियों अर्थात् कुल चौबीस भूमियों के प्रतिलेखन की सूचना यह उल्लेख किया है-इत्यादि एक्कतालीसं.....करेति। निशीथ दी गई है। यदि एक ही भूमि प्रतिलेखित हो और वहां कोई अन्य की हुण्डी में ५६ सूत्रों का उल्लेख मिलता है-८० बोल सूं १३६ मल त्याग कर दे अथवा कोई पशु आकर बैठ जाए तो व्याघात अविधि सूं अदले बदलै करै। किसी भी प्रति में कौन से बोल को आदि अनेक दोष संभव हैं।१२ क्यों छोड़ा गया अथवा क्यों ग्रहण किया गया इस विषय में कोई उल्लेख नहीं मिलता।
भिक्षु जहां उच्चारप्रसवण का विसर्जन करे, वह स्थान अत्यन्त १. निभा. २ चू.पृ. २९०-गिहिणा सचित्तोदगेण अप्पणट्ठा धोयं हत्थादि ५. आचू. १४/२-३७ अपरिणयं उदउल्लं भण्णति ।
६. निभा. भा. २ चू.पृ. २९७ २. वही-पुढविमओ मत्तओ।
७. वही, गा. १८५५ ३. वही-कंसमयं भायणं।
८. आचू. २७१ ४. नव., पृ.६८७-'देसारक्खिय-सव्वारक्खिय' सम्बन्धीनि षट्सूत्राणि ९. नि. हुंडी ४/१०८
४०,४३,४५,४८,५०,५३ अस्मिन्नेवोद्देशके (५,६,११, १०. निभा. भा. २, पृ. चू.पृ. २९७-साणुप्पओ णाम चउभागावसेस१२,१७,१८) विद्यन्ते। चूर्णिकारस्य एवं पण्णरस सुत्ता उच्चारेयव्वा चरिमाए। इत्युल्लेखेन पुनरावर्तनं समर्थितं भवति । किमर्थमत्र पुनरावृत्तानि नैतत् ११. वही, गा. १८६०, चू.पृ. २९८ कारणं परिज्ञायते । तथा एतानि सूत्राणि उद्देशकादिसूत्रेभ्यः किमर्थं १२. वही, गा. १८६२ पृथक्ककृतानीति न चर्चितमस्ति भाष्ये चूर्णी च।