Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
निसीहज्झयणं
उद्देशक ३ : टिप्पण
१२. मडगलेण-मृतक के ऊपर बना लयन (देवकुल)।' १३. मडगथंडिल-मृतक का स्थंडिल। १४. मडगवच्च-मृतक का वर्च।। १५. इंगालदाह-अंगारा बनाने का स्थान ।'
१६. खारदाह-खार (सज्जी खार) जलाने का स्थान । भाष्य एवं चूर्णि में इसका अर्थ बथुआ आदि किया है। वह यहां प्रासंगिक नहीं, सूत्र ७७ में जहां पत्ती के शाक का प्रसंग है, वहां प्रासंगिक है।
१७. गातदाह-गात्रदाह (चिकित्सा के लिए पशुओं को दागने) का स्थान।
१८. तुसदाहठाण-तुस जलाने का स्थान । १९. भुसदाहठाण-बुस (भूसी) जलाने का स्थान ।' २०. गोलेहणिया-गोलेहनिका (नौनी भूमि)।
२१. सेयायण-सेयायतन (कीचड़ युक्त पानी का स्थान, नाली।)
२२. पणगायतण-पनक या फफूंदी युक्त स्थान ।१२
२३. उंबरवच्च-उदुंबर (गूलर) का वर्च (फल सुखाने का स्थान)।३
२४. णग्गोहवच्च-न्यग्रोध (वट) के फल सुखाने का। स्थान।
२५. असोत्थवच्च-अश्वत्थ (पीपल) के फल सुखाने का स्थान ।५
२६. पिलक्खुवच्च-पाकड़ के फल सुखाने का स्थान ।
२७. डागवच्च-डाल (शाखा) प्रधान शाक का वर्च।१७ २८. सागवच्च-पत्रप्रधान शाक का वर्च।१८ २९. मूलयवच्च-मूली का वर्च (सुखाने का स्थान)। ३०. कोत्थंभरिवच्च-धनिया का वर्च। ३१. खारवच्च-बथुआ सुखाने का स्थान। ३२. जीरयवच्च-जीरा२२ सुखाने का स्थान । ३३. दमणगवच्च-दौना (दवना) २३ सुखाने का स्थान ।
३४. मरुगवच्च-मरुक (सफेद मरुआ)" सुखाने का स्थान । २०. सूत्र ८०
सामान्यतया भिक्षु स्थंडिलभूमि में जाकर उच्चार-प्रस्रवण का विसर्जन करता है। परन्तु रात्रि या विकालवेला में अथवा दिन में भी रोग, स्थानाभाव, श्वापदभय आदि कारणों से स्थंडिलभूमि में जाना संभव न हो तो मात्रक में भी उच्चार-प्रस्रवण का विसर्जन किया जाता है।
प्रस्तुत सूत्र में उस विसर्जित उच्चारप्रस्रवण का सूर्योदय से पूर्व परिष्ठापन करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। प्रस्तुत सन्दर्भ में 'अणुग्गए सूरिए' पाठ विमर्शनीय है। भाष्य एवं चूर्णि में 'अणुग्गए सूरिए' इस वाक्यांश का 'सूर्योदय से पूर्व अर्थ ग्रहण करते हुए कहा गया है-इस सूत्र का अधिकार रात्रि में विसर्जन' से है।५ प्रस्तुत सन्दर्भ में उन्होंने रात्रि में परिष्ठापन से आने वाले दोषों की भी चर्चा की है।२६
यदि 'अणुग्गए सूरिए' वाक्यांश का अर्थ 'सूर्योदय से पूर्व' किया जाए तो सूत्र में प्रयुक्त 'दिया वा' पाठ की सार्थकता पर
१. (क) निभा. गा. १५३६-छारचिता विरहितं तु थंडिल्लं। (ख) वही, भा. २, चू.पृ. २२२-छारचिति वज्जितं केवलं मडय
ट्ठाणं थंडिलं भण्णति। २. वही-मडयस्स उवरि जं देवकुलं तं लेणं भण्णति। ३. वही, गा. १५३६-वच्चं पुण पेरंता, सीताणं वा वि सव्वं तु ।। ४. निभा. २, चू.पृ. २२५-खइराति इंगाला। ५. पाइय.-खार-सर्जिका, सज्जी।
निभा. भा. २, चू.पृ. २२५-वत्थुलमाती खारो। निभा. गा. १५३७-गोमादिरोगसमणो दहंति गत्ते तहिं जासि। (चू.पृ. २२५)-जरातिरोगमरंताणं गोरूआणं रोगपसवणत्थं जत्थ
गाता डझंति ते गातदाहं भण्णति। ८. वही-कुंभकारा जत्थ बाहिरओ तुसे डहंति, तं तुसदाहठाणं। ९. वही-प्रतिवर्ष खलगट्ठाणे ऊसण्णं जत्थ भुसं डहंति, तं भुसदाहठाणं
भण्णति। १०. वही-जत्थ गावो ऊसत्थाणा लिहंति, साऽभुज्जमाणी णिरुद्धा णवा
भण्णति। ११. वही, पृ. २२६-कद्दमबहुलं पाणीयं सेओ भण्णति, तस्स आययणं
णिक्का। १२. वही-पणओ उल्ली। सो जत्थ ठाणे समुच्छति तं पणगट्ठाणं । १३. वही-उंबरस्स फला जत्थ गिरिउडे उच्चविज्जंति, तं उंबरवच्चं भण्णति । १४. वही-णग्गोहो वडो। १५. वही-असत्थो-पिप्पलो। १६. वही-पिलक्खू पिप्पलभेदो सो पुण इत्थयाभिहाणा पिप्पली
भण्णति। १७. आचू. वृ. प. ४११-डागत्ति डालप्रधानं शाकं। १८. वही-पत्रप्रधानं तु शाकमेव । १९. पाइय-मूलग-मूली। २०. वही-कुत्थुबरि-धनिया। २१. निभा. २, चू.पृ. २२५-वत्थुलमादी खारो। २२. पाइय-जीरय-जीरा। २३. वही-दमणय-दौना, सुगन्धित पत्र वाली वनस्पति-विशेष । २४. वही-मरुग-मरुवा। २५. निभा. गा. १५५० सचूर्णि। २६. वही, गा. १५५३ सचूर्णि