Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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टिप्पण
१. सूत्र १-१२
२. सूत्र १३ भिक्षु सब प्रकार के संयोगों से मुक्त होकर संबंधातीत जीवन अर्थीकरण का अर्थ है-विद्यातिशय प्रदर्शित कर राजा, व्यतीत करता है। उसकी प्रशस्त जीवन शैली है-भौतिक आकांक्षा राजारक्षक आदि को अपना प्रार्थी बनाना । भाष्यकार ने इसके अनेक से किसी प्रकार का संस्तव न करना, पूर्व या पश्चात् संबंध से मुक्त अर्थ किए हैं-१. साधु राजा का प्रार्थी बनता है। २. साधु ऐसा कार्य रहना। ऐसी स्थिति में जो भिक्षु राजा या राजारक्षक, नगर के करे, जिससे राजा उसका प्रार्थी बने। ३. धातुवाद (रासायनिक आरक्षक आदि पदाधिकारियों के साथ संबंध स्थापित करता है, क्रिया द्वारा सोना-चांदी आदि बनाने की विद्या, कीमियागरी) आदि गुणानुवाद के द्वारा उनकी अर्चा करता है अथवा अपना विद्यातिशय । के द्वारा राजा के लिए अर्थोत्पत्ति करता है। महाकालमंत्र के द्वारा प्रदर्शित कर उन्हें अपना प्रार्थी बनाता है, वह अपने लिए विविध उसे निधि दिखाता है। साधु राजा के समक्ष अपने विद्या, मंत्र, प्रकार के परीषहों को आमंत्रण देता है। राजा, राजारक्षक आदि भिक्षु निमित्तज्ञान आदि का प्रदर्शन करता है। जिससे राजा उसका अर्थी में अनुरक्त होकर उसे उत्प्रव्रजित करने का प्रयत्न कर सकते हैं तथा बन जाता है।१२ उसके संयम में विघ्न पैदा कर सकते हैं। यदि वे प्रद्विष्ट हो जाएं तो ३. सूत्र १९ भिक्षु का तिरस्कार कर सकते हैं, बंदी बना सकते हैं अथवा अन्य औषधि का अर्थ है-एक फसली पौधा । ३ निशीथ चूर्णिकार कोई प्रतिकूल परीषह उत्पन्न कर सकते हैं। भाष्य एवं चूर्णि में ने औषधि शब्द से तिल, मूंग, उड़द, चवला, गेहूं, चावल आदि का स्वाभाविक एवं काल्पनिक, प्रत्यक्ष एवं परोक्ष आदि अनेकविध ग्रहण किया है। तुषयुक्त, अखंड और अस्फुटित चावल आदि आत्मीकरण का विशद विवेचन मिलता है।
द्रव्यतः कृत्स्न होते हैं और सचित्त चावल, तिल, मूंग आदि भावतः शब्द विमर्श
कृत्स्न । भाष्य एवं चूर्णि में कृत्स्न के द्रव्य एवं भाव के संयोग से १. आत्मीकरण-अपना संबंध स्थापित करना, आत्मीय चार भंग किए गए हैंबनाना।
१. द्रव्यतः कृत्स्न, भावतः कृत्स्न। २. राजा का आरक्षक-राजा का अंगरक्षक।'
२. द्रव्यतः अकृत्स्न, भावतः कृत्स्न । ३. नगर का आरक्षक-नगर का रक्षक, कोतवाल।'
३. द्रव्यतः कृत्स्न, भावतः अकृत्स्न। ४. निगम का आरक्षक श्रेष्ठी।
४. द्रव्यतः अकृत्स्न, भावतः अकृत्स्न।४ ५. देश का आरक्षक-चोरोद्धरणिक।"
भाष्यकार ने प्रथम दो भंगों में चतुर्लघु तथा अग्रिम दो भंगों में ६.सर्व आरक्षक-महाबलाधिकृत।
मासलघु प्रायश्चित्त का कथन किया है।५ चवला आदि की फलियों ७. अर्चीकरण-उसके गुणों का कथन करना।
को खाने में समय अधिक लगता है और तृप्ति कम होती है। १. निभा. गा. १५६१-१५६५
१०. वही, गा. १५७६,७७२. वही, गा. १५५६-१५५८
अत्थयते अत्थी वा करेति, अत्थं व जणयते जम्हा। ३. वही, गा. १५५७
अत्थीकरणं तम्हा, तं विज्जणिमित्तमादीहिं।। ४. वही, २ चू. पृ. २३४-रायाणं जो रक्खति, सो रायारक्खिओ धातुनिधीण दरिसणे, जणयंते तत्थ होति सट्ठाणं। सिरोरक्षः।
११. वही भा. २, चू. पृ. २३५-महाकालमंतेण वा से णिहिं दरिसेति । ५. वही-नगरं रक्खति जो सो णगररक्खिओ कोट्टपाल ।
१२. वही-साधु रायाणं भणाति-मम अत्थि विज्जाणिमित्तं वा तीताणागतं ६. वही-सव्वपगइओ जो रक्खति णिगमारक्खिओ, सो सेट्ठी।
नाणं, ताहे सो राया अत्थी भवति। ७. वही-देसो विसतो, तं जो रक्खति सो देसारक्खिओ चोरोद्धरणिकः। १३. अचि. ४।१८३-ओषधिः स्यादौषधिश्च फलपाकावसानिका। ८. वही-एताणि सव्वाणि जो रक्खति सो सव्वारक्खिओ, एतेषु १४. निभा. गा. १५८३ सर्वकार्येषु आपृच्छनीयः स च महाबलाधिकतेत्यर्थः।
१५. वही, गा. १५८६ ९. वही-रण्णो अच्चीकरणं किं ? गुणवयणं सौर्यादि।