Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्देशक३: टिप्पण
निसीहज्झयणं हो-इत्यादि कारणों से नखों को काटना विधिसम्मत है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि उपर्युक्त प्रयोजनों में अयतना से अथवा अकारण नख काटना प्रस्तुत प्रायश्चित्त का हेतु है। शब्द विमर्श
कल्पन-संस्थापन काटना कल्पन तथा अर्धचन्द्र, शुकमुख आदि के रूप में व्यवस्थित करना नखों का संस्थापन कहलाता है। ११. सूत्र ४२-४६
जंघा, वस्ति, कांख आदि विभिन्न अवयवों की रोमराजि को काटने के अनेक प्रयोजन हो सकते हैं, जैसे-उस स्थान पर कोई व्रण हो जाए, उस पर लेप, मलहम आदि लगाना, चिकित्सा आदि की दृष्टि से उसकी सफाई करना अथवा अपने शरीर को अलंकृत, विभूषित करना आदि। स्थविरकल्प में चिकित्सा का सर्वथा निषेध नहीं है अतः व्रण, भगन्दर, अर्श आदि में उपघात पहुंचाने वाली रोमराजि को यतनापूर्वक काटना निषिद्ध नहीं है। स्वयं के या दूसरे के मोहोद्दीपन में निमित्त बने, अयतना हो एवं निरर्थक प्रमादवृद्धि में हेतुभूत हो अथवा केवल सुन्दरता बढ़ाने का प्रयोजन हो-इस प्रकार विभिन्न अवयवों की रोमराजि को काटना या उसका विविध आकृतियों में व्यवस्थापन करना अनाचार है, प्रायश्चित्त का हेतु है। शब्द विमर्श
रोम-सिर के बालों के लिए केश और शरीर के अन्य अवयवों पर होने वाले बालों के लिए रोम शब्द का व्यवहार होता है।' १२. आघर्षण करता है अथवा प्रघर्षण करता है (आघंसेज्ज वा पघंसेज्ज वा)
प्रस्तुत आगम में अनेक स्थलों पर आमार्जन-प्रमार्जन, संबाधन-परिमर्दन, अभ्यंगन-म्रक्षण, उत्क्षालन-प्रधावन आदि धातुयुग्म दृष्टिगोचर होते हैं। भाष्यकार के अनुसार इनमें प्रथम पद एक बार और द्वितीय पद बार-बार (अनेक बार) अथवा प्रथम पद अल्प द्रव्य (लोध, जल आदि) से तथा द्वितीय पद बहुत द्रव्य (लोध, जल आदि) से करने के अर्थ में प्रयुक्त है।' दांतों के संदर्भ में चूर्णिकार ने आघर्षण का अर्थ एक दिन घिसना और प्रघर्षण का अर्थ प्रतिदिन घिसना किया है। १. (क) निभा. गा. १५१९-चंकमणामावडणे, लेवो देह-खत असुइ
णक्खेसु। (ख) वही भा. २, चू. पृ. २२१-चंकमतो पायणहा उपलखाणुगादिसु अप्फिडंति । पडिलोमो वा भज्जति । हत्थणहा वा भायणे लेवं विणासेंति। .....पायणहेसु दीहेसु अंतरंतरे रेणु चिटुंति, तीए
चक्खु उवहम्मति। २. वही, पृ. २२०-कप्पयति छिनत्ति, संठवेति तीक्ष्णे करोति, चंद्रार्धे
सुकतुंडे वा करोति। ३. (क) वही, गा. १५१९-वणगंड रति-अंसिय-भगंदलादीसु रोमाई।।
(ख) वही, भा. २ चू.पृ.२२१ -व्रण-गंड अरइयंसि-भगंदरादिसु
१३. सूत्र ४७-४९
दसवेआलियं में दन्तप्रक्षालन एवं दतौन करना दोनों को भिन्नभिन्न अतिचार माना गया है। सूयगडो में दन्तप्रक्षालन (कदम्ब आदि की दतौन) से दन्तप्रक्षालन का निषेध किया गया है। प्रतिदिन दंतमंजन करना, दांतों को धोना, फूंक देना, रंग लगाना आदि भिक्षु के लिए निषिद्ध कार्य हैं। अकारण अथवा अयतना से इन कार्यों को करने वाला प्रायश्चित्त का भागी होता है। यह इस आलापक का अभिप्राय है।
विस्तार हेतु द्रष्टव्य-दसवेआलियं ३।३ एवं ९ का टिप्पण। १४. सूत्र ५०-५५
प्रस्तुत आलापक में होठ के आमार्जन, संबाधन, अभ्यंगन, उद्वर्तन आदि के लिए मासलघु प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। भाष्य तथा परम्परा के अनुसार रोगप्रतिकार के लिए ये विहित भी हैं। संभवतः इसमें सभी श्वेताम्बर एकमत हैं। विभूषा के लिए अभ्यंगन, उद्वर्तन आदि करने वाले भिक्षु के लिए चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है।
इस प्रायश्चित्त भेद एवं पारम्परिक अपवाद से जान पड़ता है कि सामान्यतः आमार्जन, संबाधन, अभ्यंगन आदि निषिद्ध हैं और रोगप्रतिकार के लिए निषिद्ध नहीं भी हैं।
विस्तार हेतु द्रष्टव्य-दसवे. ३/९ का टिप्पण (पृ. ७३) १५. सूत्र ५६-६६
प्रस्तुत आलापक में प्रज्ञप्त उत्तरोष्ठ (दाढ़ी), नासिका, भौंह तथा पार्श्वभाग की रोमराजि तथा पलकों के रोम को काटने अथवा संवारने तथा आंखों के आमार्जन-प्रमार्जन यावत् रंग लगाना पर्यन्त सभी सूत्रों के विषय में सामान्यतः वही उत्सर्ग एवं अपवाद पद ज्ञातव्य हैं जो पूर्व सूत्रों के विषय में प्रज्ञप्त हैं। भाष्यकार एवं चूर्णिकार के अनुसार बीज, रजकण आदि गिरने पर आंखों का आमार्जन-प्रमार्जन एवं त्रिफला आदि के पानी से यतनापूर्वक प्रक्षालन, अत्यधिक लम्बी भौंहें जो चक्षु की उपघातक हों, उनका कल्पन एवं व्यवस्थितीकरण, आंखों के रोग आदि में अंजन तथा व्रण, गंड आदि पर लेप, मलहम आदि ठहर सकें अतः पलकों के रोम तथा
रोमा उवघायं करेंति, लेवं वा अंतरेति, अतो छिंदति संठवेति वा। ४. वही, पृ. २२०-रोमराती पोट्टे भवति......केसे त्ति सिरजे ।। ५. वही, गा. १४९६-एतेसिं पढमपदा सई तु बितिया तु बहुसो बहुणा
वा।
६. वही, भा. २, चू.पृ. २२०-एक्कदिणं आघसणं, दिणे-दिणे पघंसणं। ७. दसवे. ३३,९। ८. सूय. २।१।१४, वृ. प. २९९-नो दन्तप्रक्षालनेन कदम्बादिकाष्ठेन
दन्तान् प्रक्षालयेत्। ९. निसीह. १५।१३३-१३८ ।