Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
निसीहज्झयणं
६१
उद्देशक ३: टिप्पण
ब्राह्मणों आदि के प्रद्वेष, अन्तराय तथा उनके साथ अधिकरण आदि २. संबाधन-परिमर्दन-संबाधन का अर्थ है-मर्दन करना, दोष भी संभव हैं।
दबाना। विकालवेला में पैर दबाना संबाधन तथा अर्धरात्रि, पश्चिम शब्द विमर्श
रात्रि या दिन में अनेक बार पैर दबाना परिमर्दन कहलाता है। १. संखड़ी-पलोयणा-रसवती में जाकर, ओदन आदि को ३. उल्लोलण-उद्वर्तन-एक बार लेप करना उल्लोलण देखकर 'यह दो' 'यह दो' इस प्रकार कहना।
और बार-बार लेप करना उद्वर्तन है। भाष्यकार ने उल्लोलण के ५. सूत्र १५
स्थान पर 'उव्वलण' शब्द का प्रयोग किया है। भिक्षु के लिए विधान है प्रायः दृष्ट स्थान से भक्तपान लेना। ४. फूमन-रंजन-अलक्तक आदि से पैरों आदि को इसकी मर्यादा यह है कि तीन घरों के अन्तर से लाया हुआ भक्तपान रंगना और उसके पश्चात् फूंक देकर उस रंग को लगाना (टिकाऊ हो, वह ले, उससे आगे का न ले। चौवन अनाचारों की सूचि में बनाना)। 'अभिहत' को चौथा अनाचार माना गया है। निशीथभाष्य एवं ७. सूत्र २२-२७ पिण्डनियुक्ति में अभिहृत के अनेक प्रकारों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत आलापक में स्वयं के शरीर के आमार्जन, प्रमार्जन, मिलता है।
संबाधन, परिमर्दन आदि क्रियाओं का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। इन ६.सूत्र १६-२१
क्रियाओं में प्रकारान्तर से स्नान, संबाधन, गात्र-उद्वर्तन तथा प्रस्तुत आलापक में स्वयं के पैरों के आमार्जन, प्रमार्जन, गात्र-अभ्यंग आदि अनाचारों का समावेश हो जाता है। दसवेआलियं संबाधन, परिमर्दन, अभ्यंगन, म्रक्षण, उद्वर्तन, परिवर्तन, उत्क्षालन, की चूर्णि एवं टीका में संपुच्छणा अनाचार में शरीर की रज आदि को प्रधावन, फूमन (फूंक देना) एवं रंजन (अलक्तक आदि लगाना) पौंछना, मैल उतारना आदि की चर्चा भी उपलब्ध होती है।१२ का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। भिक्षा आदि से लौटने पर, अस्थंडिल से अनाचारों की श्रृंखला में संबाधन, दंतप्रधावन और देह-प्रलोकन-ये स्थंडिल में आते समय पैरों का आमार्जन एवं प्रमार्जन आचीर्ण है। सारे शरीर से सम्बन्धित हैं और 'संपुच्छण' का उल्लेख इनके साथ इसी प्रकार वातरोग आदि में अथवा मोहचिकित्सा के लिए पैरों का में है अतः यह भी शरीर से सम्बन्धित होना चाहिए। निसीहज्झयणं संबाधन, परिमर्दन आदि अन्य क्रियाएं भी अनाचार नहीं है। अकारण के प्रस्तुत आलापक से भी इसी विचार की पुष्टि होती है। इनमें या मात्र शारीरिक साता के निमित्त ये क्रियाएं करना बाकुशिक क्रमशः शरीर के प्रमार्जन, संबाधन, अभ्यंग, उद्वर्तन, प्रक्षालन प्रवृत्ति है, स्वयं एवं दूसरे के मोहोद्दीपन की हेतुभूत होने के कारण और रंगने का प्रायश्चित्त कहा है।३ ब्रह्मचर्य के लिए अहितकर हैं। प्रमार्जन आदि में वायुकाय तथा संक्षेप में कहा जा सकता है कि सौन्दर्यवृद्धि, विभूषा आदि प्रक्षालन आदि में अप्काय आदि जीवों की विराधना भी संभव है। के लिए शरीर का प्रमार्जन आदि करना अथवा प्रयोजनवश अयतना अतः ये सदोष हैं।
से प्रमार्जन आदि करना सदोष है, अनाचरणीय है अतः इनसे प्रायश्चित्त शब्द विमर्श
प्राप्त होता है। १. आमार्जन-प्रमार्जन-पैरों को एक बार या हाथ से साफ ८. सूत्र २८-३९ करना आमार्जन तथा बार-बार या रजोहरण से साफ करना प्रमार्जन प्रस्तुत आलापक में व्रण, फोड़ा, फुसी, अर्श, भगन्दर आदि कहलाता है।
के परिकर्म, उनके आच्छेदन, विच्छेदन, उत्क्षालन, प्रधावन तथा १. निभा. गा. १४८०
६. वही गा. १४९८पडिणीय-विसक्खेवो, तत्थ व अण्णत्थ वा वि तण्णिस्सा।
आतपर-मोहुदीरण बाउसदोसो य सुत्तपरिहाणी। मरुगादीणं पओसो, अधिकरणुप्फोस वित्तवयो।।
संपातिमाति घातो, विवज्जयो लोगपरिवायो। २. वही, भा. २ चू.पृ. २०६-संखडिसामिणा अणुण्णातो तो तम्मि ७. वही, भा. २, चू.पृ. २१०-अप्पणो पाए आमज्जति एक्कसि,
रसवतीए पविसित्ता ओअणाति पलोइङ भणाति-'इतो य इतो प मज्जति पुणो-पुणो।अहवा हत्थेण आमज्जणं, रयहरणेण पमज्जणं। पयच्छाहि' त्ति एस पलोयणा।
८. वही, पृ. २१२-संबाहण त्ति विस्सामणं। ३. दसवे. चूलिका २१६-ओसन्नदिवाहडभत्तपाणे।
९. वही, पृ. २११-वियाले संबाहा भवति । जो पुण अडरत्ते पच्छिमरत्ते ४. (क) निभा. गा. १४८३-१४८८ तथा पि.नि. ३२९-३४६ ।
वि दिवसतो वा अणेगसो संबाधेति, सा परिमहा भण्णति । (ख) द्रष्टव्य दसवे. ३१२ का टिप्पण।
१०. वही, पृ. २१२-कक्काइणा उव्वलणं । निभा. गा. १४९१
११. वही-अलत्तगाइणा रंगणं....... अलक्तकरंगो फुमिज्जंतो लग्गति । आइण्णमणाइण्णा, दुविहा पादे पमज्जणा होति।
१२. दसवे. ३।३ का टिप्पण (२१) संसत्ते पंथे वा, भिक्खवियारे विहारे य॥
१३. निसीह. ३।२२-२७