Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
३४
उद्देशक २: टिप्पण
निसीहज्झयणं स्वजन आदि के समक्ष पात्र की याचना करे और वे स्वजन आदि .
र अग्रपिण्ड' तथा अग्रिम सूत्र में प्रयुक्त 'नित्य पिण्ड' शब्द से वस्तु उसका उपबृंहण करे-साधु को पात्र देने से महान् पुण्य बंधता है
के अन्तर की सूचना मिलती है। जो श्रेष्ठ आहार निमन्त्रणपूर्वक आदि। इस प्रकार यतनापूर्वक, परोक्षविधि से गृहस्थ के द्वारा पात्र
नित्य दिया जाए वह नित्याग्रपिण्ड तथा जो साधारण भोजन नित्य की गवेषणा-मार्गणा करवाने पर उपर्युक्त दोष नहीं आते-ऐसा
दिया जाए, वह नित्यपिण्ड कहलाता है। भाष्यकार एवं चूर्णिकार का मत है।'
१९. सूत्र ३२-३५ भाष्यकार के अनुसार औधिक एवं औपग्रहिक उपधि, शय्या
आयारचूला में कहा गया है कि जिन कुलों में नित्य पिण्ड, एवं आहार के विषय में भी यही विधि ज्ञातव्य एवं प्रयोक्तव्य है।
नित्य-अग्रपिण्ड, नित्यभाग, नित्य अपार्धभाग दिया जाए, वहां मुनि शब्द विमर्श
भिक्षा के लिए न जाए। इससे जान पड़ता है कि उस समय अनेक १. वर-प्रवर अथवा सम्मान्य। जो जिस ग्राम आदि में पूज्य,
कुलों में प्रतिदिन नियत रूप से भोजन देने का प्रचलन था, जो प्रमाणभूत अथवा प्रधान हो, जैसे-ग्राम में ग्रामामहत्तर आदि।
नित्यपिण्ड कहलाता था और कुछ कुलों में प्रतिदिन के भोजन का २. बल-प्रभुत्व सम्पन्न । जिसका जिस पर प्रभुत्व हो।'
कुछ अंश ब्राह्मण या पुरोहित के लिए अलग रखा जाता था, वह ३. लव गवेषित-दान फल के निरूपण द्वारा गवेषित (पात्र)।
अग्रपिण्ड, अग्रासन, अग्रकूर और अग्राहार कहलाता था।" नित्य
दान वाले कुलों में प्रतिदिन बहुत याचक नियत भोजन पाने के लिए सूत्र ३१ १७. नैत्यिक (णितिय)
आते रहते थे। उन्हें पूर्णपोष, अर्धपोष या चतुर्थांश पोष दिया जाता चूर्णिकार ने नितिय शब्द के दो अर्थ किए हैं-१. ध्रुव अथवा
था। प्रस्तुत सूत्र कदम्बक में नित्यपिण्ड, नित्य अपार्ध, नित्य भाग शाश्वत और २. जो प्रथम दिया जाता है।
और नित्य अपार्धभाग का भोग करने वाले के लिए प्रायश्चित्त का नियुक्तिकार ने नैत्यिक अग्रपिण्ड के चार विकल्प किए हैं-१.
विधान है। इसका निषेध भी निमन्त्रण आदि पूर्वक नित्य भिक्षा गृहस्थ द्वारा निमन्त्रण । २. प्रेरणा-साधु द्वारा संशयकरण-घर आने
ग्रहण के प्रसंग में किया गया है। पर देगा या नहीं? ३. परिमाण-साधु द्वारा परिमाण की पृच्छा-तू
शब्द विमर्श कितना देगा और कितने समय तक देगा? ४. स्वाभाविक।
१.पिण्ड-भोजन। प्रथम तीन विकल्प वर्जनीय हैं और स्वाभाविक नैत्यिक
२. अवड्ड-अपार्द्ध अर्थात् आधा। अग्रपिण्ड को कल्पनीय माना गया है।"
३. भाग-तीसरा भाग। १८. अग्रपिण्ड (अग्गपिड)
४. अवभाग-छठा भाग (तीसरे का आधा)। भाष्य में अग्रपिण्ड का अर्थ है श्रेष्ठ आहार। इसका एक अर्थ-निष्पन्न
- इसके लिए 'उवड्डभाग शब्द का प्रयोग मिलता है। १२
२९ भोजन का कुछ अंश, जो देवता आदि के लिए निश्चित रूप से दिया जाए यह भी मिलता है। इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'नित्य
प्रस्तुत सूत्र में नैत्यिक वास का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। ऋतुबद्ध १. निभा. गा. ९८७
५. वही, गा. ९९३पुव्वोवट्ठमलद्धे णीयमपरं वा वि पट्ठवेतूणं।
दाणफलं लवितूणं लावावेतु गिहि-अण्णतित्थीहिं। पच्छा गंतुं जायति, समणुव्वूहंति य गिही वि॥
जो पादं उप्पाए, लवगविटुं तु तं होति ।। (चूर्णि) पुव्वं संजएण गविटुंण लद्धं ताहे संजतो नियं परं वा पुव्वं वही, भा. २,चू.पृ. १०३-णितियं धुवं सासयमित्यर्थः ।........जं तत्थ पट्ठवेति, गच्छ तुमं तो पच्छा अम्हे गमिस्सामो, तुज्झ य पुरओ पढमं दिज्जति सो पुण भत्तट्ठो वा भिक्खामेत्तं वा होज्जा। तं मग्गिस्सामो, तुम उवव्हेज्जासि-'जतीणं पत्तदाणेण महतो ७. (क) वही, गा. ९९९ पुण्णखंधो बज्झति', एवं उववूहिते जति ण लब्भति, पच्छा भणेज्जासु (ख) विस्तार हेतु द्रष्टव्य दसवे. ३१२ का नियाग पद का वि 'देहि' त्ति एवं पदोसादयो दोसा परिहरिया भवंति।
टिप्पण। २. वही, गा. ९९८
निभा. भा. २, चू. पृ. १०३-अग्गं वरं प्रधानं । ३. वही, गा. ९८९
९. आचू. १११९ जो जत्थ अच्चितो खलु, पमाणपुरिसो पधाणपुरिसो वा।
१०. आचू. १।१९ वृ.पृ. ३२६-शाल्योदनादेः प्रथममद्धृत्य भिक्षार्थं तम्मि वरसद्दो खलु, सो गामियरट्ठितादी तु॥
व्यवस्थाप्यते सोऽअपिण्डः। ४. वही, गा. ९९१
११. (क) वही जो जस्सुवरि तु पभू, बलियतरो वा वि जस्स जो उवरि ।
(ख) विस्तार हेतु द्रष्टव्य-दसवे. ३१२ (टि. १०) एसो बलवं भणितो, सो गहवति-सामि-तेणादि।
१२. निभा. गा. १००९
पिण्डो खलु भत्तट्ठो, अवड्डपिंडो उ तस्सं जं अद्धं । भागो तिभागमादी, तस्सद्धमुवभागो य।।