Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
निसीहज्झयणं
काल और वर्षाकाल में मर्यादा के अतिरिक्त एक स्थान पर रहना नैत्यिक वास है।' भिक्षु की प्रशस्त विहारचर्या है हेमन्त और ग्रीष्म में विहरण करना । जो भिक्षु हेमन्त और ग्रीष्म अर्थात् ऋतुबद्धकाल में एक महीने तथा वर्षाकाल में चार महीने की मर्यादा का अतिक्रमण करता है, उसके अतिक्रान्त क्रिया लगती है तथा जहां मासकल्प और चतुर्मासकल्प व्यतीत किया, उसका दुगुना काल अन्यत्र बिताए बिना वहां पुनः मासकल्प एवं चतुर्मासकल्प करने से उपस्थान क्रिया लगती है।
भाष्य एवं चूर्णि में द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के आधार पर नैत्यिकवास का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है।'
ज्ञातव्य है कि राग आदि के कारण नैत्यिकवास दोष है, किन्तु वृद्ध और ग्लान की सेवा हेतु अशिव, दुर्भिक्ष आदि आपवादिक परिस्थितियों में तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि विशुद्ध आलम्बनों से अतिरिक्त काल तक रहना, निरन्तर एक क्षेत्र में रहना भी दोषयुक्त नहीं।
२१. सूत्र ३७
दान देने से पूर्व दाता की स्तुति / प्रशंसा करना पुरः संस्तव तथा दान देने के पश्चात् स्तुति करना पश्चात्संस्तव है ये दोनों उत्पादना के दोष हैं। श्रेष्ठ भिक्षा मिले, दाता मुझसे प्रभावित हो - इत्यादि भावों से स्तुति कर आहार, उपधि आदि ग्रहण करना भिक्षु के लिए अकल्पनीय है । भाष्यकार ने आत्मसंस्तव, परसंस्तव व उभय-संस्तव, द्रव्य-संस्तव, क्षेत्र-संस्तव, काल- संस्तव, भावसंस्तव और वचन संस्तव की तथा उनसे होने वाले दोषों की सविस्तर विवेचना की है।'
२२. सूत्र ३८
प्रस्तुत सूत्र में परिचित कुलों में भिक्षाचरिका के काल से पूर्व और उस काल के अतिक्रान्त होने के बाद प्रविष्ट होने वाले को प्रायश्चित्तार्ह माना गया है। समय प्रबन्धन का सूत्र है१. निभा. २ चू. पू. १०५ - उडुबद्धवासासु अतिरिक्तं वसतः णितियवासो भवति ।
२. कप्पो १ । ३६ ।
३. आचू. २।३४,३५ (विशेष जानकारी हेतु द्रष्टव्य-आगमसंपादन की समस्याएं, पृ. ९० )
४. निभा. गा. १०११-१०१९
५. वही, गा. १०१६, १०२१,१०२४
६. विस्तार हेतु द्रष्टव्य निभा. गा. १०२५-१०४९ ।
७. दसवे. ५।२।५
८. निभा. गा. १०७५, १०७६
९. वही, भा. २ चू. पृ. ११७- एए वि पत्तो तेसिं दरसावं ण देति, अन्नत्थ ठायति ।
१०. वही - पुव्युत्तदोसपरिहरणद्वताए संजयट्ठा कीरंतं वारेति परिहरति वा । ११९. वही, पृ. ११३ - समाणो नाम समधीनः अप्रवसितः ।
३५
काले कालं समायरे ।
अकाल- अप्राप्तकाल अथवा अतिक्रान्तकाल में भिक्षार्थगमन करने वाला भिक्षु स्वयं को भी क्लान्त करता है और यथोचित भिक्षा न मिलने पर ग्राम की भी गर्हा करता है। "
उद्देशक २ : टिप्पण
परिचित कुलों में भिक्षाकाल से पूर्व जाने पर आधाकर्म, क्रीतकृत आदि एषणा दोषों की संभावना रहती है. अकालचारी के प्रति अन्य गृहस्थ के मन में स्तेन, मैथुनार्थी आदि की शंका भी संभव है।'
कदाचित् अज्ञानवश या अशिव, ग्लान्य आदि विशेष परिस्थितियों में अकाल में परिचित कुल में पहुंच जाए, तब भी उनको दिखाई न दे अथवा उन्हें पूर्वोक्त दोषों के परिहारार्थ अवबोध दे।"
शब्द - विमर्श
१. समाण - स्थिरवास में रहता हुआ। "
२. वसमाण - नवकल्पी विहार करता हुआ । १२
३. दुइज्जमाण - इसका अर्थ है-परिव्रजन करता हुआ । ३ ग्रामानुग्राम परिव्रजन सकारण विशेष प्रयोजन से भी हो सकता है और निष्कारण भी नए देशों का दर्शन, विशिष्ट आहार की प्राप्ति आदि के लिए जाना निष्प्रयोजन विहार के उदाहरण हैं।" स्वाध्याय योग्य स्थान की उपलब्धि एवं आवश्यक धर्मोपकरण की उपलब्धि के लिए जाना आदि सप्रयोजन विहार के उदाहरण हैं।
४. पुरेसंथुय पच्छासंय- संस्तुत का अर्थ है परिचित । १६ गृहस्थकाल की दृष्टि से पितृकुल माता-पिता आदि पुरः संस्तुत तथा श्वसुरकुल - सास ससुर आदि पश्चात्संस्तुत होते हैं। इसी प्रकार श्रामण्य प्रतिपत्ति एवं श्रामण्यकाल की अपेक्षा से भी अनेक कुल पुरः संस्तुत एवं पश्चात्संस्तुत हो सकते हैं। "
१७
५. अणुपविस अनुप्रवेश का अर्थ है भिक्षा काल के अतिक्रान्त होने पर प्रवेश । “
१२. वही - णवविहं विहारं विहरंतो वसमाणो भण्णति ।
१३. वही अनु पश्चाद्भावे गामातो अण्णो गामो अणुगामो, दोसु पाएस सिसिरगिम्हेसु वा रिइज्जति ति ।
१४. वही, १०५५
आयस्य साधुवंदण, चेतिय णीयल्सगा तहासण्णी । गमणं च देसदंसण, णिक्कारणिए व बड़गादि ।
१५. वही, १०६३
वाघाते असिवाती, उवधिस्स व कारणा व लेवस्स । बहुगुणतरं च गच्छे, आयरियादी व आगाढे।
१६. वही, भा. २, पृ. ११६ - संधुयं णाम लोगजत्ता परिचियं । १७. वही, गा. १०७०-१०७२ ।
१८. वही, भा. २, पृ. ११३ - अनुप्रवेशो पच्छा, भिक्खाकाले अतिक्रान्ते
इत्यर्थः ।