Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
उद्देशक २ : टिप्पण
शब्द विमर्श
१. शय्या शरीरप्रमाण विछौना, जो यथासंस्तृत (निश्चल)
हो ।'
२. संस्तारक - अढ़ाई हाथ प्रमाण बिछौना, यह परिशाटी, अपरिशाटी आदि अनेक प्रकार का होता है।'
३८
३. पर्युषणा - वर्षावास का प्रथम दिन (श्रावण कृष्णा एकम) । ४. दसरात्रकल्प - चातुर्मास सम्पन्नता की दस रात्रि के बाद (मृगशिर कृष्णा दसमी) तक ।
५. उवातिणाव - अतिक्रमण करना (विवक्षित काल के बाद रखना) । ४
२८. सूत्र ५१
भिक्षु शय्या संस्तारक को प्रतिलेखना, प्रत्यर्पण आदि के लिए उपाश्रय से बाहर लाए और वे वर्षा में भीगते रहें तो अनेक प्रकार के दोषों की संभावना रहती है-१. संयमविराधना-अष्कायिक तथा काई आदि आ जाए तो वनस्पतिकायिक जीवों की विराधना। २. आत्मविराधना गोले शय्या संस्तारक का उपयोग करने से अजीर्ण आदि रोग । ३. शय्या संस्तारक के स्वामी को स्थिति ज्ञात हो जाए तो अपभ्राजना और व्यवच्छेद (भविष्य में शय्या संस्तारक अथवा अन्य प्रातिहारिक वस्तु की अप्राप्ति ) । अतः जो वस्तु जब तक भिक्षु की निश्रा में है, तब तक उसके प्रति वह सावधान रहे। शब्द विमर्श
१. उबरं सिज्माण-वर्षा से भीगते हुए।' २९. सूत्र ५२
ववहारो में प्रातिहारिक और शय्यातर सम्बन्धी शय्या संस्तारक दो सूत्र हैं। उनका निर्देश है कि शय्या संस्तारक चाहे शय्यातर के हों या अन्य गृहस्थकुल से प्रातिहारिक रूप में लाए गए हों, भिक्षु उनके स्वामी की पुनः अनुज्ञा लिए बिना उन्हें उपाश्रय से बाहर न ले जाए। प्रस्तुत सूत्र में 'पाडिहारिय' शब्द से दोनों प्रकार के शय्यासंस्तारक को पुनः अनुज्ञा लिए बिना बाहर ले जाने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। " स्वामी की अनुज्ञा के बिना शय्या आदि को अन्यत्र ले
१. निभा. गा. १२१७ - सव्वंगिया सेज्जा... अहासंथडा व सेज्जा.....। २. (क) वही बेहत्थद्धं च होति संथारो ।
(ख) विस्तार हेतु द्रष्टव्य- वही, गा. १२१८-१२२०
३. वही, भा. ३ चू. पृ. १३० - आसाढ - पुण्णिमाए पज्जोसवेंति । बिताना । ४. पाइय उवाइणाव (अति + क्रम) - उल्लंघन करना,
५. निभा २ चू. पृ. १६३ - वासेणोवरि सेज्जमाणं ।
६. वव. ८1६, ७
७. निभा २ चू. पृ. १६४- असेज्जातरस्स सेज्जातरस्स वा संतितो जति पुणे मासक दोच्चं अणावेता अंतोहितो बाहिं नीति बाहि वा अंतो अतिणेति, तहा वि मासलहुँ ।
निसीहज्झयणं
जाने से अप्रत्यय, अप्रीति आदि अनेक दोष संभव हैं। अतः भिक्षु के लिए निर्देश है कि वह अन्य उपाश्रय में जाते समय बिना पूछे कुछ भी अपने साथ न ले जाए। "
३०. सूत्र ५३
प्रस्तुत सूत्र में शय्या संस्तारक प्रत्यर्पित किए बिना बिहार करने वाले को प्रायश्चित्तार्ह माना गया है। कप्पो (बृहत्कल्प सूत्र ) में प्रातिहारिक शय्या संस्तारक को बिहार से पूर्व पुनः गृहस्वामी को सौंपने का निर्देश है ।"
जो मुनि प्रातिहारिक रूप में गृहीत शय्या संस्तारक आदि का प्रत्यर्पण नहीं करता, वह अप्रीति और अवहेलना का पात्र बनता है। शय्या संस्तारक के स्वामी को जब ज्ञात होता है कि मुनि शय्यासंस्तारक लौटाए बिना ही यहां से विहार कर गए हैं तो उसके मन में साधुओं के प्रति अविश्वास पैदा होता है। वह भविष्य में साधुओं को शय्या संस्तारक अथवा अन्य वस्तुएं भी न देने का निर्णय कर लेता है।" इसलिए आवश्यक है कि मुनि जिस घर से शय्यासंस्तारक आदि जो प्रातिहारिक वस्तु लाए, उसे विधिपूर्वक प्रत्यर्पित करे। यदि किसी कारण से वह स्वयं प्रत्यर्पित न कर सके तो अन्य मुनि के द्वारा उसे यथासंभव संस्तारक आदि लौटा दे।" शब्द विमर्श
• पाडिहारिय-लौटाने योग्य (प्रत्यर्पणीय) वस्तु पाडिहारिय (प्रातिहारिक) कहलाती है।
आदाय - ग्रहण करके । ३
• अपडिहट्ट - प्रत्यर्पण किए बिना । १४ ३१. विकरण किए बिना (अविगरणं कट्ट)
कप्पो (बृहत्कल्पसूत्र) में निर्देश है कि मुनि बिहार से पूर्व शय्या - संस्तारक का विकरण कर स्वयंकृत बंधन को खोलकर उसे उसके स्वामी को विधिपूर्वक प्रत्यर्पित करे। शब्दा संस्तारक के विकरण का अर्थ है उसके अवयवों को व्यवस्थित करना। संस्तारक के दो प्रकार हैं १५_
परिशाटी - यह प्रायः तृणमय होता है।
८. निभा. गा. १२८९
अण्वस्यगमणे, अणपुच्छा णत्थि किंचि णेतव्वं ॥ ९. कप्पो ३ ।२५
१०. निभा. १३०२-१३०४ (चू. पृ. १६८, १६९ ) ११९. वही, गा. १३०६ (चू. पृ. १६९)
१२. वही, भा. २ चू. पृ. १६४- पाडिहारिको प्रत्यर्पणीय ।
१३. वही, पृ. १६७ - आदाय गृहीत्वा ।
१४. वही - अप्पडिहट्टु नाम अणप्पिणित्ता । १५. कप्पो ३/२६