Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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निसीहज्झयणं
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उद्देशक २: टिप्पण
दरराज
४. पुप्फ-मनोज्ञ, स्वच्छ और वर्ण, गंध और रस आदि गुणों से युक्त श्रेष्ठ जल।
५. कसाय-अमनोज्ञ, प्रतिकूल रस, गन्ध या स्पर्श वाला कलुषित जल। . सुब्भि, दुब्भिं, पुप्फ और कसायं ये चारों सामयिकी संज्ञाएं
शय्यातर के प्रभाव से अन्य गृहस्थों से गृहीत आहार आदि भी प्रकारान्तर से शय्यातर-पिण्ड है अतः सूत्रकार ने इन्हें समानरूप से प्रायश्चित्तार्ह माना है। दसवेआलियं में शय्यातरपिण्ड को अनाचार माना गया है। शय्यातरपिण्ड के ग्रहण से एषणा आदि अनेक दोषों की संभावना रहती है अतः सभी तीर्थंकरों ने इसका निषेध किया है। भिक्षु को शय्यातर के घर से अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, सूई, कैंची, कर्णशोधनक एवं नखच्छेदनी आदि का ग्रहण नहीं करना चाहिए।
घास, डगलक (ढेला), क्षार, मल्लक (सिकोरा) आदि को शय्यातरपिण्ड नहीं माना गया है। शय्यातर का पुत्र यदि वस्त्र, पात्र सहित दीक्षा ले तो वह भी शय्यातरपिण्ड नहीं। शय्यातर कौन होता है, कब होता है आदि विषयों की विस्तृत जानकारी हेतु द्रष्टव्य-कप्पो २।१३ का टिप्पण तथा निशीथभाष्य गा. ११३८१२०४। शब्द विमर्श
१. सागारियणीसा-शय्यातर की निश्रा। शय्यातर के प्रभाव का उपयोग कर अशन, पान आदि का अवभाषण करना शय्यातर की निश्रा से अशन, पान का आदि ग्रहण करना कहलाता है। २७. सूत्र ४९,५०
प्रस्तुत सूत्रद्वयी में काल का अतिक्रमण कर शय्या-संस्तारक रखने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। प्राचीन काल में भिक्षु ऋतुबद्ध काल में सामान्यतः घास के शय्या, संस्तारक एवं फलक नहीं रखते थे, किन्तु जहां भूमि आर्द्र हो, उपधि आदि के संसक्त होने की आशंका हो, वहां अशुषिर, संधि एवं बीज रहित घास वाले या हल्के फलक शय्या-संस्तारक के रूप में रखते थे। वर्षाकाल में पक्के फर्श पर भी शय्या-संस्तारक का उपयोग करने की परम्परा थी। ऐसी स्थिति में जो शय्या-संस्तारक जिस कालावधि के लिए याचित एवं गृहीत हो, उस अवधि का अतिक्रमण करने पर माया, मृषा, अप्रत्यय, गृहस्थों का उपालम्भ आदि दोष संभावित हैं, अतः भिक्षु के लिए यह विहित नहीं।१२
२५. सूत्र ४४
सामान्यतः भिक्षु भिक्षा में प्रमाणोपेत आहार लाए यही विधि है। फिर भी कभी ग्लान, अतिथि आदि के लिए अनेक संघाटक आहार ले आएं या कोई दाता अचानक बड़ा पात्र भर दे इत्यादि। कारणों से बहुत मात्रा में आहार पर्यापन्न हो सकता है-मात्रातिरिक्त हो सकता है। ऐसी स्थिति में जो भिक्षु अपने पार्श्ववर्ती उपाश्रय में सांभोजिक, उद्यतविहारी अपारिहारिक (निरतिचार चारित्र का पालन करने वाले) अन्य भिक्षुओं को उपनिमंत्रित किए बिना आहार का परिष्ठापन करता है, वह प्रायश्चित्ताह है। उस मनोज्ञ आहार को वे अन्य भिक्षु ग्रहण करें या न करें, जो आत्मविशुद्धि से उन्हें उपनिमंत्रित करता है, उसे विपुल निर्जरा का लाभ होता है। शब्द विमर्श
१. बहुपरियावण्ण-अनेक प्रकार से परिष्ठापन के योग्य।
२. संभोइय-सांभोगिक, जिनका परस्पर आहार, पानी आदि के आदान-प्रदान का संभोज हो, संबंध हो।'
३. समणुण्ण-समनोज्ञ, उद्यतविहारी।
४. अपरिहारिय-निरतिचारचारित्री। ज्ञातव्य है कि यहां अपरिहारी शब्द का प्रयोग सूत्र २।३९-४१ में प्रयुक्त अपरिहारी। शब्द से सर्वथा भिन्न अर्थ में है। २६. सूत्र ४५-४८
प्रस्तुत आलापक में प्रथम दो सूत्रों में शय्यातर-पिण्ड के ग्रहण एवं भोग का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। 'सागारिक' शय्यातर के लिए प्रयुक्त सामयिकी संज्ञा है। जो भिक्षु शय्यातर की भलीभांति जानकारी किए बिना पिण्डपात की प्रतिज्ञा से गृहस्थकुल में अनुप्रविष्ट होता है, उसके भी शय्यातर-पिण्ड के ग्रहण की संभावना रहती है। १. निभा, गा. ११०४
जं गंधरसोवेतं अच्छं व दवं तु तं भवे पुष्फं।
जं दुब्भिगंधमरसं, कलुसंवा तं भवे कसायं ।। २. वही, गा. ११३१-११३३ ३. वही, भा. २ चू.पृ. १२७-बहुणा प्रकारेण परित्यागमावन्नं
बहुपरियावन्नं भण्णति। ४. वही-संभुंजते संभोइया। ५. वही-समणुण्णा उज्जयविहारी। ६. वही-संभोइयगहणातो चेव अपरिहारिगहणं सिद्धं, किं पुणो
अपरिहारिगहणं?
प्रत्य
आचार्याह-चउभंगे द्वितीयभंगे सातिचारपरिहरणार्थं । ७. दसवे. ३५ ८. निभा. गा. ११५९,११६० ९. वही, गा. ११५१-११५४ १०. वही, २ पृ. १४७-सेज्जायरं परघरे दटुं दाविस्सति त्ति असणाति
ओभासति, एसा णिस्सा। ११. वही, गा. १२२४,१२२५ । १२. वही, गा. १२३९
मायामोसमदत्तं, अप्पच्चय-खिंसणा उवालंभो। वोच्छेदपदोसादी, दोसाति उवातिणंतस्स।