Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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निसीहज्झयणं
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उद्देशक २: टिप्पण १०.सूत्र १९
करने की मर्यादा है। कप्पो (बृहत्कल्पसूत्र) में चार सूत्रों में सलोम ___ हास्य, प्रमाद, निद्रा आदि के कारण तथा बिना विचारे बोलना चर्म एवं कृत्स्न चर्म के विषयक विधि और निषेध का निरूपण स्वल्प मृषावाद कहलाता है। भाष्यकार ने इसके भी द्रव्य, क्षेत्र मिलता हैं।
आदि चार प्रकार कर, उनका विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है।' प्रस्तुत सन्दर्भ में भाष्यकार ने पादत्राण धारण करने के दोष, भिक्षु को तीन करण, तीन योग से असत्य वचन का सर्वथा त्याग उसके अपवाद के कारण तथा अन्य अनेक तथ्यों सम्बन्धी चालनाहोता है अतः उसके लिए स्वल्पमात्र मृषावाद का प्रयोग भी प्रतिषिद्ध प्रत्यवस्थान प्रस्तुत किया है।
१४. सूत्र २३ ११. सूत्र २०
कृत्स्न वस्त्र का अभिप्राय है बहुमूल्य एवं विशिष्ट दांत कुरेदने के लिए तिनका आदि आज्ञा के बिना लेना, वर्ण से युक्त वस्त्र । कप्पो (बृहत्कल्पसूत्र) में निर्ग्रन्थों एवं निर्ग्रन्थियों अननुज्ञात भूमि पर उच्चारप्रसवण का विसर्जन, स्वल्पकालीन विश्राम । के लिए अभिन्न एवं कृत्स्न वस्त्र के धारण एवं परिभोग का निषेध हेतु आज्ञा के बिना वृक्ष आदि के नीचे बैठना आदि कार्य स्वल्प एवं भिन्न एवं अकृत्स्न वस्त्र के धारण एवं परिभोग का विधान किया अदत्तादान के अन्तर्गत आते हैं। प्रस्तुत सूत्र में इसके लिए लघुमासिक गया है। भाष्यकारों ने द्रव्य, क्षेत्र आदि की दृष्टि से कृत्स्न के चार प्रायश्चित्त का विधान है।
प्रकार कर उनका विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है।' १२. सूत्र २१
१५. सूत्र २४,२५ प्रस्तुत सूत्र में स्वल्प जल (तीन चुल्लू से अधिक) से भी प्रस्तुत आगम के प्रथम उद्देशक के ३९वें सूत्र के शरीर के अवयवों को धोने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। शरीर के कुछ मूलपाठ 'अलमप्पणो करणयाए' के आधार पर अपरिकर्म अवयवों का प्रक्षालन देशस्नान और सभी अवयवों का प्रक्षालन वाला समीकरण मुनि स्वयं कर सकता है। प्रस्तुत सूत्र में समीकरण सर्वस्नान कहलाता है। आहार के बाद मणिबंध तक हाथ धोना, का भी निषेध है। यह निषेध औत्सर्गिक है। पूर्वसूत्र इसका अपवाद अशुचि पदार्थों से लिप्त पैर आदि अवयवों को स्वल्प जल से धोना सूत्र है। आचीर्ण देशस्नान है। निष्कारण हाथ, मुंह आदि अवयवों को धोने १६. सूत्र २६-३० में विभूषा, सौन्दर्य वृद्धि आदि का भाव रहता है, षट्कायिक जीवों प्रस्तुत आलापक में अन्य व्यक्ति द्वारा गवेषित पात्र को की विराधना भी संभव है। अतः भिक्षु के लिए अस्नान व्रत ही ग्रहण करने तथा दानफल का कथन कर पात्र ग्रहण करने का प्रायश्चित्त श्रेयस्कर माना गया है।
बतलाया गया है। ज्ञातिजन, सम्मान्य या प्रभुत्वसम्पन्न व्यक्ति प्रस्तुत प्रसंग में निशीथभाष्य एवं उसकी चूर्णि में देश, सर्व, आदि के द्वारा पात्र की गवेषणा एवं याचना किए जाने पर पात्र का आचीर्ण-अनाचीर्ण, सकारण-निष्कारण आदि से उत्पन्न विविध स्वामी लज्जा, गौरव अथवा मित्र आदि की प्रेरणा के कारण पात्र दे विकल्पों, स्नान के दोषों तथा अपवादपदों का सुविस्तृत वर्णन देता है, किन्तु उसके मन में संयतिदान का अहोभाव उत्पन्न नहीं किया गया है।
होता फलतः उत्कृष्ट निर्जरा लाभ भी नहीं होता। प्रत्युत् उसमें १३. सूत्र २२
अप्रीति, अप्रतीति एवं प्रद्वेष की संभावना रहती है। अतः भिक्षु प्रस्तुत सूत्र का निर्देश है कि अखण्ड चर्ममय पदत्राण स्वयं ही पात्र की गवेषणा एवं याचना करे। कदाचित् अत्यन्त का प्रयोग नहीं किया जाए। विशेष कारण के बिना भिक्षु को चर्म अभाव में स्वजन आदि से पात्र की गवेषणा करवाए तो गृहस्थ को ग्रहण करना नहीं कल्पता। विशेष कारण में स्थविर के चर्म धारण पात्र-स्वामी के घर भेजने के पश्चात् स्वयं उसके घर जाए। भिक्षु १. (क) निभा. गा. ८७५-दव्वे खेत्ते काले, भावे य लहुसगं मुसं (ख) दसवे. ३१ का टिप्पण १२ होति।
५. वव.८1५ (ख) विस्तार हेतु द्रष्टव्य-वही, गा. ८७६-८८२
६. कप्पो ३/३-६ २. वही, गा. ८८७,८८८
७ (क) निभा. गा. ९१३-९४७ दव्वे इक्कङकढिणादिएसु खेत्ते उच्चारभूमिमादीसु।
(ख) तुलना हेतु द्रष्टव्य कप्पो ३१५ का टिप्पण। काले इत्तरियमवी, अजाइत्तु चिट्ठमाईसु॥
८. कप्पो ३/७-१० भावे पाउम्गस्सा अणणुण्णवणाइ तप्पढमताए।
९. (क) नि.भा. गा. ९४८-९५४ तथा बृभा. गा. ३८८१-३८९८। ठायंते उडुबद्धे, वासाणं वुड्डवासे य॥
(ख) विस्तार हेतु द्रष्टव्य कप्पो ३७ का टिप्पण। ३. दसवे.६१६२
१०. निभा. गा. ९८१,९८२। ४. विस्तार हेतु द्रष्टव्य (क) निभा. गा. ८९५-९१२