Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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निसीहज्झयणं
६. सिक्कगणंतग-छींके का ढक्कन ।'
७. चिलिमिलि-यवनिका, पर्दा । ७. सूत्र १५-१८
मूल निर्माण (निष्पत्ति) के पश्चात् जो भी थोड़ा अथवा बहुत परिष्कार किया जाता है, वह उत्तरकरण कहलाता है, जैसे-सूई के छेद को बड़ा करना, उसे सीधा या श्लक्ष्ण करना, कैंची की धार पैनी करना आदि। भिक्षु गृहस्थ या अन्यतीर्थिक से सूई, कैंची आदि का उत्तरकरण (परिकर्म) नहीं करवा सकता, क्योंकि गृहस्थ आदि से स्वयं का कार्य करवाने की भगवान की आज्ञा नहीं है अतः इससे आज्ञाभंग, अनवस्था, मिथ्यात्व आदि दोषों की प्राप्ति होती है। ___भाष्यकार के अनुसार जिस कार्य को करना आज्ञाबाह्य है, उसे करने में प्रायः एक साथ चार दोषों की आपत्ति आती है-आज्ञाभंग अनवस्था, मिथ्यात्व और विराधना । जैसे-एक मुनि को सूई का उत्तरकरण कराते देख दूसरा, उसे देखकर तीसरा-इस क्रम से आगे से आगे दोष की आवृत्ति होने से अनवस्था होती है। उनके व्यक्तियों को एक ही दोष का सेवन करते देख अभिनवधर्मा श्रावक मिथ्या अवधारणा को प्राप्त होता है कि अमुक कार्य सदोष नहीं है। जहां आज्ञाभंग हो, वहां संयम-विराधना एवं सापेक्ष रूप से आत्मविराधना भी संभव है। ८. सूत्र १९-२२
बिना प्रयोजन सूई, कैंची आदि की याचना करना विधि सम्मत नहीं, क्योंकि सूई आदि के गिर जाने, खो जाने आदि से उन्हें खोजने आदि में निरर्थक श्रम होता है, जिस गृहस्थ की सूई लाई गई, उसे न लौटाने पर गृहस्थ के मन में अप्रीति और अप्रतीति के भाव पैदा होते
उद्देशक १ : टिप्पण सूत्र २३-३६ का स्पष्टीकरण है-ऐसा माना जा सकता है।
श्रीमज्जयाचार्य ने गृहस्थ के हाथ से सीधे अपने हाथ में सूई, कैंची आदि लेने को ग्रहण की अविधि माना है। १०. सूत्र ३१-३८
भिक्षु सूई, कैंची आदि प्रातिहारिक उपकरण जिसके नाम से लाए, वही उसे काम में ले। स्वयं के लिए लाकर अन्य को देना विधिसम्मत नहीं। अन्य के नाम से गृहीत सूई, कैंची आदि को अन्य व्यक्ति को प्रयोग में लेते देखकर गृहस्थ अपभ्राजना कर सकता है, भविष्य में देने का निषेध कर सकता है। सूई, कैंची आदि शस्त्रमय उपकरणों की प्रत्यर्पण की विधि का निर्देश देते हुए आयारचूला में लिखा है-सूई, कैंची आदि उपकरणों को सीधे हाथ पर या भूमि पर रखकर गृहस्थ से कहें-यह वस्तु है। उसे अपने हाथ से गृहस्थ के हाथ में प्रत्यर्पित न करे। इस प्रकार उन्हें भूमि पर रखकर लौटाना विधिसम्मत है।
भाष्य एवं चूर्णि में भी इसी विधि का निर्देश मिलता हैं।" श्रीमज्जयाचार्य ने भी गृहस्थ के हाथ में सूई आदि देने को प्रत्यर्पण की अविधि कहा है। ११.सूत्र ३९,४०
भिक्षु के पास दो प्रकार के उपकरण होते हैं-१. औधिक पात्र आदि तथा २. औपग्रहिक-दण्ड, लाठी, सूई, अवलेखनिका आदि। परिकर्म की अपेक्षा से उपकरण के तीन प्रकार हैं
१. बहुपरिकर्म-जिसमें आधे अंगुल से ज्यादा छेदन-भेदन करना पड़े।
२. अल्परिकर्म-जिसमें आधे अंगुल तक छेदन-भेदन किया जाए।
३. अपरिकर्म (यथाकृत)-जिसमें परिघट्टन, संस्थापन आदि कोई परिकर्म नहीं करना होता, वह उपकरण यथाकृत उपकरण कहलाता है।
भिक्षु को सामान्यतः यथाकृत उपधि का ग्रहण करना चाहिए, ताकि परिकर्म आदि के कारण स्वाध्याय, ध्यान आदि संयम-योगों
आलोएज्जा, णो चेवणं सयं पाणिणा परपाणिसि....पच्चप्पिणेज्जा। ७. निभा. गा. ६७७
गहणंमि गिण्हिऊणं, हत्थे उत्ताणगम्मि वा काउं। भूमीए वा ठवेत्तुं, एस विही होती अप्पिणणे॥
नि. हुंडी-अविधै सूई आपै, हाथो हाथ दे। ९. निभा. गा.६८७,६८८
अद्धंगुला परेणं, छिज्जंतं होति सपरिकम्मं तु । अद्धंगुलमेगं तू, छिज्जंत अप्पपरिकम्म। जं पुवकतमुहं वा, कतलेवं वा वि लब्भए पादं। तं होति अहाकडयं, तेसि पमाणं इमं होति ।
९. सूत्र २३-३०
सूई, कैंची आदि प्रातिहारिक उपकरण प्रयोजन होने पर भी विधिपूर्वक ही ग्रहण किए जाने चाहिए। भाष्यकार के अनुसार अन्य
भयकर के अनसार अन्य प्रयोजन का कथन कर प्रातिहारिक वस्तु ग्रहण करे और उससे भिन्न कार्य करे यह ग्रहण की अविधि है। इस दृष्टि से सूत्र २७-३० में १. निभा. भा. २ चू. पृ. ३९-सिक्कयंतयं णाम तस्सेव पिहणं। २. वही, गा. ६६४
पासग-मट्टिणिसीयण, पज्जण-रिउकरण उत्तरं करणं।
सुहुमं पिजंतु कीरति, तदुत्तरं मूलणिव्वत्ते॥ ३. निभा. गा. ६६९
णढे हितविस्सरिते, तदण्णदव्वस्स होति वोच्छेदो।
पच्छाकम्म-पवहणं, धुवावणं वा तट्ठस्स। ४. नि. हुंडी-अविधै सूई याचे, तेहना हाथ सूं साहमी हाथै ले। ५. आचू. ७।९-जे तत्थ गाहावईण वा......तं अप्पणो एगस्स अट्ठाए
पाडिहारियं जाइत्ता णो अण्णमण्णस्स देज्जा वा, अणुपदेज्जा वा। ६. वही-पुव्वामेव उत्ताणए हत्थे कट्ट भूमीए वा ठवेत्ता 'इमं खलु' ति