Book Title: Nisihajjhayanam
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आमुख
प्रस्तुत उद्देशक में सोलह पदों का संग्रहण हुआ है। इसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय है-अचित्तगंध सूंघने का निषेध, स्वयं उपकरण परिष्कार, काष्ठदण्डमय पादप्रोञ्छन, कृत्स्नचर्म एवं कृत्स्नवस्त्र धारण, नैत्यिकपिण्ड, शय्यातरपिण्ड आदि से सम्बन्धित निषेधों का प्रायश्चित्त। प्रथम उद्देशक में सचित्त वस्तु-पुष्प आदि की गन्ध को सूंघने का गुरुमासिक प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है, क्योंकि उसका अहिंसा एवं ब्रह्मचर्य दोनों से सम्बन्ध है। प्रस्तुत उद्देशक में अचित्त वस्तु की गन्ध को सूंघने का लघुमासिक प्रायश्चित्त बतलाया गया है। प्रथम उद्देशक में पदमार्ग, संक्रम, अवलम्बन, दकवीणिका, चिलिमिली आदि का अन्यतीर्थिक एवं गृहस्थ से निर्माण करवाने, सूई, कैंची आदि का उत्तरकरण तथा पात्र, लाठी, अवलेखनिका आदि के परिष्कार–परिघट्टन, समीकरण आदि कार्यों का गृहस्थ एवं अन्यतीर्थिक से करवाने का प्रायश्चित्त बतलाया गया है, इस उद्देशक में इन्हीं कार्यों को स्वयं करने का लघुमासिक प्रायश्चित्त बतलाया गया है।
निसीहज्झयणं में भिक्षु के लिए काष्ठदंडमय पादप्रोञ्छन के निर्माण, ग्रहण, धारण, वितरण, परिभाजन एवं परिभोग को प्रायश्चित्ताह कार्य माना गया है। जबकि कप्पो (बृहत्कल्पसूत्र) में निर्ग्रन्थ के लिए काष्ठदण्डमय पादप्रोञ्छन को अनुज्ञात एवं निर्ग्रन्थी के लिए उसे निषिद्ध माना गया है। दोनों ही आगमों के एतद्विषयक भाष्यों में इस विप्रतिपत्ति के विषय में कोई चालना-प्रत्यवस्थान उपलब्ध नहीं होता। कप्पो (बृहत्कल्पसूत्र) में प्रज्ञप्त कृत्स्नचर्म एवं कृत्स्नवस्त्र विषयक निषेध का प्रस्तुत उद्देशक में प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। इस विषय में दोनों आगमों के भाष्यों का विवेचन प्रायः समान है।
प्रस्तुत उद्देशक का एक मुख्य विषय है शय्यातरपिण्ड। शय्यातर कौन होता है, शय्यातर कब होता है, शय्यातरपिण्ड के कितने प्रकार हैं, शय्यातरपिण्ड को ग्रहण करने से क्या-क्या दोष संभव हैं, कौन से कारणों में यतनापूर्वक शय्यातरपिण्ड लिया जा सकता है-इत्यादि विविध विषयों पर भाष्य एवं चूर्णि में सुविस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है।
प्राचीन काल में भिक्षु वर्षावास में अनिवार्यतः शय्या-संस्तारक का उपयोग करते। जहां सीलनयुक्त भूमि होती, जहां वस्त्र, कम्बल आदि के कुथित होने, काई लगने तथा आर्द्रवस्त्रों से अजीर्ण आदि रोग होने का भय होता, वहां शेषकाल में भी शय्या-संस्तारक का उपयोग किया जाता था। शय्या-संस्तारक शय्यातर का हो या अन्य गृहस्थ के घर से लाया हुआ, उसका स्वरूप कैसा हो? उसकी गवेषणा एवं आनयन की विधि क्या हो? एक ही संस्तारक को अनेक साधुओं ने देखा, गृहस्थ से याचना की-इत्यादि परिस्थितियों में उसका स्वामित्व किस साधु का हो, उसके विकरण एवं प्रत्यर्पण की विधि क्या हो-इत्यादि विषयों का निशीथभाष्य एवं उसकी चूर्णि में विस्तृत एवं मनोवैज्ञानिक वर्णन उपलब्ध होता है। संस्तारक खोना नहीं चाहिए-इस प्रसंग में वसतिपाल कितने और कैसे हों और वे किस प्रकार वसति की सुरक्षा करें-इसका भी इस उद्देशक के भाष्य में सुन्दर वर्णन मिलता है।
प्राचीन काल में अनेक कुलों में प्रतिदिन नियत रूप से भोजन देने का प्रचलन था और अनेक कुलों में प्रतिदिन के भोजन का कुछ अंश, चतुर्थांश अथवा अर्धांश ब्राह्मणों अथवा पुरोहितों के लिए अलग रखा जाता था। प्रस्तुत उद्देशक के 'णितिय पद' में समागत सूत्रपञ्चक की तुलना आयारचूला के पढम अज्झयण के 'कुल-पद'३ तथा दसवेआलियं के 'नियाग' पद से की जा सकती है। निशीथभाष्यकार ने णितिय अग्गपिण्ड के कल्प्याकल्प्य के विषय में चार विकल्प उपस्थित किए हैं
१. निमंत्रण-गृहस्थ साधु को निमंत्रण देता है-भगवन् ! आप मेरे घर आएं और भोजन लें। १. निभा. गा. १२२४
३. आचू. १/१९ २. वही, गा. १३४१,१३५३