Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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( ३७ ) भी कषायप्राभृतचूर्णि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार मतभेदके स्थलोंको यथावत् कायम रखा गया है । आवश्यकता होनेपर हम इस विषयपर विस्तृत प्रकाश डालेंगे ।
( ५ ) पाँचवाँ उल्लेख भी सप्ततिकाचूर्णिका है । इसमें मोहनीयके चारके बन्धकके एकका उदय होता है इस मतका सप्ततिकाचूर्णिकारने स्वीकार कर उसकी पुष्टि कषायप्राभृत आंदिसे की है। तथा साथ ही दूसरे मतका भी उल्लेख कर दिया है । सो उक्त चूर्णिकारके उक्त कथनसे इतना ही ज्ञात होता है कि उनके समक्ष कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि थी ।
इस प्रकार श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थोंके पाँच उल्लेख हैं जिनमें कषायप्राभृतके आधार उसके नामोल्लेख पूर्वक प्रकृत विषयकी पुष्टि तो की गई है, परन्तु इन उल्लेखोंपरसे एक मात्र यही प्रमाणित होता है कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में दर्शन-चरित्रमोहनीयके उपशमना - क्षपणाविधिकी प्ररूपणा करनेवाला सर्वांग साहित्य लिपिबद्ध न होनेसे इसकी पूर्ति दिगम्बर आचार्योंद्वारा रचित कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिसे की गई है । परन्तु ऐसा करते हुए भी उक्त शास्त्रकारोंने उन दोनोंको श्वेताम्बर परम्पराका स्वीकार करनेका साहस भूलकर नहीं किया है । यह तो केवल उक्त प्रस्तावना लेखक श्वे. मुनि हेमचन्द्रविजयजीका ही साहस है जो बिना प्रमाणके ऐसा विधान करनेके लिए उद्यत हुए हैं । वस्तुतः देखा जाय तो एक तो कुछ अपवादोंको छोड़कर कर्मसिद्धान्तकी प्ररूपणा दोनों सम्प्रदायोंमें लगभग एक सी पाई जाती है, दूसरे जिन विषयोंकी पुष्टिमें श्वेताम्बर आचार्योंने कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिका प्रमाणरूपमें उल्लेख किया है उन विषयोंका सांगोपांग विवेचन श्वेताम्बर परम्परामें उपलब्ध न होनेसे ही उन आचार्योंको ऐसा करनेके लिए बाध्य होना पड़ा है, इसलिए श्वेताम्बर आचार्योंने अपने साहित्य में कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिकाप्रकृत विषयोंकी पुष्टिमें उल्लेख किया मात्र इसलिए उन्हें श्वेताम्बर आचार्योंकी कृति घोषित करना युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता ।
( ३ )
आगे खवगसेढिकी प्रस्तावना में 'कषायप्राभृत मूल तथा चूर्णिनी रचनानो काल' उपशीर्षकके अन्तर्गत प्रस्तावना लेखकने जो विचार व्यक्त किये हैं वे क्यों ठीक नहीं हैं इसकी यहाँ मीमांसा की जाती है
१. जिस प्रकार जयधवलाके प्रारम्भ में दिगम्बर परम्पराके मान्य आचार्य वीरसेनने तथा श्रुतावतारमें इन्द्रनन्दिने कषायप्राभृतके कर्तारूपमें आचार्य गुणधरका और चूर्णिसूत्रोंके कर्तारूपमें आचार्य यतिवृषभका स्मरण किया है इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परामें किसी भी पट्टावली या कार्मिक या इतर साहित्यमें इन आचार्यका किसी भी रूप में नामोल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता । अतः इस विषय में उक्त प्रस्तावना लेखकका यह लिखना युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता कि 'पट्टावली में पाटपरम्परामें आनेवाले प्रधानपुरुषोंके नामोंका उल्लेख होता है आदि । क्योंकि पट्टाबलि में पाटपरम्पराके प्रधान पुरुषोंके रूपमें यदि उनका नाम नहीं भी आया था तो भी यदि वे श्वेताम्बर परम्पराके आचार्य होते तो अवश्य ही किसी न किसी रूपमें कहीं न कहीं उनके नामोंका उल्लेख अवश्य ही पाया जाता । श्वेताम्बर परम्परा में इनके नामोंका उल्लेख न पाया जाना ही यह सिद्ध करता है कि इन्हें श्वेताम्बर परम्पराके आचार्य मानना युक्तियुक्त नहीं है ।
२. एक बात यह भी कही गई है कि जयधवलामें एक स्थल पर गुणधरका वाचकरूपसे उल्लेख दृष्टिगोचर होता है, इसलिए वे वाचकवंशके सिद्ध होनेसे श्वेताम्बर परम्पराके आचार्य होने चाहिए, सो इसका समाधान यह है कि यह कोई ऐसा तर्क नहीं है कि जिससे उन्हें श्वेताम्बर परम्पराका स्वीकार करना आवश्यक समझा जाय । वाचक शब्दका अर्थ वाचना देनेवाला होता है जो श्वेताम्बर मतकी उत्पत्तिके पहलेसे ही श्रमण परम्परा में प्राचीनकाल से रूढ़ चला आ रहा है । अतः जयधवलामें गुणधरको यदि वाचक कहा भी गया है तो इससे भी उन्हें श्वेताम्बर परम्पराका आचार्य मानना युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता ।
३. यह ठीक है कि श्वेताम्बर परम्परामें नन्दिसूत्रकी पट्टावलिमें तथा अन्यत्र आर्यमंक्षु और नागहस्तिका नामोल्लेख पाया जाता है और जयधवलाके प्रथम मंगलाचरणमें चूणिसूत्रोंके कर्ता आचार्य यतिवृषभको आर्यमक्षुका शिष्य और नागहस्तिका अन्तेवासी कहा गया है । परन्तु मात्र यह कारण भी आचार्य