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जैनेन्द के जोवन-दशन की भूमिका
वस्तुत जैनेन्द्र ने जीवन के सत्य को ग्रहण कर उसे जीवन के विविध क्षेत्रो मे व्यक्त किया है। जैनेन्द्र जी के अनुसार व्यक्ति का अह उसके जीवन का वह उद्गम-स्थल है, जहा से उसके समस्त विचारो, भावो ओर आचरण को दिशा-निर्देश प्राप्त होता है। (ग्रह के अस्तित्व-बोधक अर्थ में अधिक उन्होने उसको 'मै' तथा 'पर' के द्वन्द्व रूप में व्यक्त किया है ।) जनेन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य मे अह का विशद् विवेचन प्राप्त होता है। विचारात्मक निबन्धो से लेकर अधिकाश कहानियो और उपन्यासो मे अहविसर्जन की समस्या मुख्य रूप से मुखरित हुई है। जैनेन्द्र के जीवन और साहित्य का परम लक्ष्य आत्मोत्सर्ग है । 'मै' भाव की अतिशयता भेद-भाव सूचक हे । किन्तु जैनेन्द्र भेद मे अभेद की खोज करते है। उनकी दृष्टि में अभेद ही सत्य है। 'मै' का प्राबल्य व्यक्ति-चेतना को कुण्ठित कर देता है जैनेन्द्रजी के अनुसार अहभाव को सुरक्षित बनाए रखने से वह पुष्ट ही होता है, उसका विगलन नही होता। अत वे 'मैं' को विस्तार देकर समष्टि मे मिला देना चाहते है। व्यक्ति का स्व-बोध इतना फैल जाय कि वह स्वय अस्तित्वहीन-सा अनुभव करे। उनकी कल्पना मानो बूंद को सागर की यान्ति मे समा देना चाहती है। यद्यपि समुद्र में बू द का अस्तित्व ही मिट जाता है, किन्तु जैनेन्द्र अस्तित्व को बनाए रखते हुए व्याप्ति का भाव उत्पन्न करना चाहते है ।
जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन का प्राण-तत्व व्यक्ति के 'अह' में निहित है। सामान्यत उनके इस तात्विक दृष्टिकोण को समभाने मे लोग भ्रम मे पड़ गए है और अपने भ्रमित दृष्टिकोण के आधार पर ही जैनेन्द्र के कथा-साहित्य की भी आलोचना की है, किन्तु जैनेन्द्र की विचारधारा मूलत भिन्न है। सामान्यत आधुनिक लेखक और विचारक अह को अस्तित्व-बोध तथा मनोवैज्ञानिक स्तर पर ग्रथि के रूप मे लेकर अपने विचारो की पुष्टि करते है, किन्तु जैनेन्द्र प्रह को ग्रथि नही मानते । ग्रथि विकार और व्यक्ति के अचेतन मे दबी हुई पशुता की सूचक है । मनोवैज्ञानिक मानव-निया का प्रेरक स्त्रोत अचेतन मन को मानते है। उनके अनुसार अचेतन मे त्यवस्थित व्यक्ति की दमित वासना ही उनके कार्यो का प्रतिनिधित्व करती है। जैनेन्द्र जी के अनुसार अह मूल प्रवृतियो का पुज हे ।' मनुष्य के अचेतन मन मे पाप नहीं, वरन् भगवत्ता निहित है।
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जैनेन्द्र कुमार 'समय पोर हम (१९६२)', प्र०स०, दिल्ली, पृ० ५७१ । "मनुष्य के मर्मातिमर्म मे भगवत्त पड़ी हुई है और जो अह के एक-एक पटल को भेदकर और चुकाकर भगवत्त भाव तक पहुच पाता है। वह प्रशता से उठकर सर्वता को प्रकट करने लग जाता है।" ---जेनेन्द्र कुमार 'समय और हम', प्र० स०, दिल्ली, १६६२, पृ० ५६७ ।