Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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होयतो ते सहेलाई थी थई शके छे, विहार दरम्यान अमें शत्रुंजा, गिरनार, अमदाबाद, खंभात, संखेश्वर, पाटण, आबू, देलवाड़ा, अचलगढ़, सेरीशा, पानसर, वगेरे स्थले म्हारी समज शक्ति मुजब घणा देरासरजी अने देरासरमां रहेल प्रतिमाजी ध्यान पूर्वक जोयेल छे तो प्रतिमाजी ओ विक्रम संवत् १२ ना सैका पहेलानी प्रतिमा क्यांय जोवा मां नथी आवेल, मात्र एकज प्रतिमा संखेश्वरजी ना तीर्थ धाममा संवत् ११ ना सैकानी छे, ते सिवाय बीजे क्यांय १२ ना सैका पहेलानी प्रतिमाजी म्हारा जोवामा नथी आवेल छताँ दलील खातर प्रतिमानी प्राचीनता कबूल कराय तो ते थी वंदनीय पूजनीय छे एम कोई रीते साबित थतुं नथी, थायज नहिं माटे प्राचीनता कहीने भोला लोकोने भरमाववा ए कोई रीते बुद्धिमान मनुष्य नुं काम नथी ।
सारांश
श्रीयुत् रतनलाल दोशीए बहु विशाल वांचन, मनन अने अध्ययन पछीज युक्ति युक्त सप्रमाण दलीलो थी श्रीमान् मुनिवर्य श्री ज्ञानसुन्दरजी ने जे जबाब आप्या छे ते तेमणे पोते अने अन्य विचारक वाँचको ए तटस्थ अने शान्त वृत्ति थी बन्ने पुस्तको साथे राखीने वाँचवा, अनेहुं धारुं छं त्याँ सुधी तटस्थ वृत्ति थी वाँचनारने आ पुस्तक जरूर आदरणीय अ वस्तु स्वरूप समजावनार अने सन्मार्ग ना साचा भोमिया जेवुंज जणाशे, एमाँ शङ्का नथी ।
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आत्मकल्याणनी साधना कोई पंण जड़ वस्तु पछीते स्थूल पदार्थ रूपे होके स्थूल क्रिया रूपे होय तेनाथी थती नथी कारण के ते साधन पोते काँई कोई नुं कल्याण के अकल्याण करतुं नथी पण से साधन नो सदुपयोग के दुरुपोगज कल्याण अकल्याण नो निमित्त बने
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