Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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१७८.
व्यवहार सूत्र का समभावित चैत्य ******************************************** सुन्दर जी आप ही के टीकाकार इस समभावित चैत्य की क्या व्याख्या करते हैं।
“यत्रैव सम्यग् भावितानि जिनवचन वासितान्तः करणानि दैवतानि पश्यति तत्र गत्वा तेषामन्ति के आलोचयेत्।"
अर्थात् - जहाँ सम्यग् भावित-जिन वचनों से ओतप्रोत है अन्तःकरण (हृदय) जिसका ऐसे देवता के पास जाकर आलोचना करे।
उक्त व्याख्या के विपरीत सुन्दर बन्धु अपनी सुन्दर बुद्धि से “समभावित" शब्द का ही अर्थ करते हैं “सुविहित प्रतिष्ठित' समझ में नहीं आता कि सुन्दरमित्र ने ऐसा अपूर्व(?) अर्थ किस प्रकार कर डाला? समभाव शब्द का अर्थ सुविहित और साथ ही प्रतिष्ठित ऐसा विलक्षण अर्थ करके क्या सुन्दर महानुभाव ने उत्सूत्र प्ररूपणा नहीं की है? अवश्य पूर्ण रूप से उत्सूत्र प्ररूपणा, सामान्य जनता को धोखा देने की दुष्ट नियत से की है।
यदि सुन्दर मित्र टीकाकार की व्याख्या के बाद के अर्थ पर से ऐसा कहते हैं तो यह भी अनुचित हैं क्योंकि टीकाकार ने उक्त व्याख्या करने के बाद अपनी मर्जी से यह भी विधान कर दिया कि यदि ऐसा सम्यक्त्व भावित हृदय वाला देव नहीं मिले तो “जिन प्रतिमा के सामने आलोचना करे' समझ में नहीं आता कि टीकाकार महाराज ने यह विधान किस आधार से किया? मूल सूत्र में तो यह बात और यह अधिक विधान है ही नहीं, फिर बिना ही मूल के मूर्ति के पीछे पड़कर मनमाना विधान ठीक बिठाने वाले महानुभावों को क्या कहा जाय? यदि स्पष्ट रूप से कहने दिया जाय तो यह भी उत्सूत्र प्ररूपणा ही है। इतना होते हु भी सुन्दर जी की द्वेष बुद्धि तो अलग ही अपना रंग जमा
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