Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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क्या जैन साधु ऐसा उपदेश दे सकते हैं?
श्रमण निर्ग्रन्थ की और गणधर सुधर्म स्वामी आदि को मूर्ति पूजक साधु होना बताया है तथा मूर्तियों के प्रतिष्ठा कराने का उल्लेख किया है, किन्तु इनकी यह बात केवल कपोलकल्पित या किसी मूर्ति पूजा
मनगढन्त पुराण की ही है, क्योंकि प्रथम तो इसमें कोई विश्वसनीय प्रमाण नहीं। दूसरे वे महान् चारित्र सम्पन्न थे, इसलिए वे ऐसे हेय कार्य को करते ही नहीं। तीसरा उस समय मूर्ति पूजा की ही मान्यता सिद्ध नहीं होती, इसलिए सुन्दर प्रयत्न भोलों को भुलावे में डालने के लिए ही है, फिर भी हम सुन्दरजी के लेख से ही यहाँ इस बात पर विचार करेंगे। सुन्दर मित्र अपने "मेझरनामें" में लिखते हैं कि -
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"अंजन सलाका, प्रतिष्ठा, उपधान, रात्रि रोशनी करवी श्रावकोए देरासरमां नाचकूद, दांडीया रमवा, स्त्रीयोए गरवा गावा, गाडा ने गाडा माटी मंगावो पहाड़ रचाववा संघ साथे साधु साध्विओ रात्रि दिवस मां साथेज चालवुं अने गाडा उंट साथे राखवा...... . ते आगमवादी पंच महाव्रत धारी मुनि मतंगजो नी क्रिया न थी, परन्तु निगमवादी चैत्यवासी शिथिलाचारी सुखशिलयाओ नीज क्रिया छे।"
( भूमिकान्तर्गत त्रण ननामा लेखकों ने उत्तर पृ० ३८ ) पुनः मेझरनामे की तीसरी ढाल में लिखते हैं कि "कल्पित क्रिया बनावीने, सावद्य हो कर उपदेश । अंजनशलाका प्रतिष्ठा विषे, संयम हो न राख्यो लेश ॥ ६ ॥ काव्य बनाव्या पूजा तणी, सावध हो न आणे शंक। " (पू० १३)
आगे २९ वीं ढाल में लिखा है कि
" रोशनी करे रातना, मन्दिर मां हो लेवे भक्तिनुं नाम ।
अणगणता त्रस जीवना, प्राण जाये हो? जुओ वाणिकना काम ॥ २२ ॥
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