Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
२६७
अर्थ सुगम है।
(१५) महामहोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी हमारे समाज का खंडन करते हुए “प्रतिमा शतक'' में लिखते हैं कि - सावधं व्यवहार तोपि भगवन् साक्षाकिला नादिशत्। बल्यादि प्रतिमार्चनादि गुणकृत मौनेन संमन्यते॥
__ अर्थात् - बलिदान और प्रतिमा पूजन आदि क्रिया व्यवहार से सावद्य (निंदनीय) होने के कारण भगवान् अपने मुँह से इसका उपदेश नहीं करते। किन्तु गुणकारी होने से मौन से इसका समर्थन करते हैं ।
(१६) मूर्ति पूजक समाज के प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् पं० बेचरदासजी दोसी अपने "जैन साहित्य में विकार थवाथी थयेली हानी'' नामक निबंध के पृ० १२५ में लिखते हैं कि -
“मूर्तिवाद चैत्यवाद पछीनो छे एटले एने चैत्यवाद जेटलो प्राचीन मानवाने आपणी पासे एक पण एवं मजबूत प्रमाण नथी के जे शास्त्रीय (सूत्र विधि निष्पन्न) होय, वा ऐतिहासिक होय। आमतो आपणे अने आपणा कुलाचार्यों सुद्धां मूर्तिवाद ने अनादि नो ठराववानी तथा वर्धमान भाषित जणाववानी वणगा फुकवा जेवी वातों कर्या करीए छीए, पण ज्यारे ते वातो ने सिद्ध करवा माटे कोई ऐतिहासिक प्रमाण वा अंग सूत्र नुं विधिवाक्य मांगवामां आवे छे त्यारे आपणी प्रवाहवाही परंपरानी ढालने आगल धरीए छीए, अने बचाव माटे आपणा वडिलोने आगल करीए छीए, में धणी कोशीश करी तो पण परंपरा अने "बाबा वाक्यं प्रमाणं' सिवाय मूर्तिवाद ने स्थापित
* यही तो उपाध्याय जी की मूर्ति पूजकता है। शायद भगवान् के मन के भाव उपाध्याय जी ने जान लिये हों।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org