Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 359
________________ ३१४ निष्कर्ष ****************************************** मतमोह में मस्त ही कहे जा सकते हैं। बहुत से मूर्ति पूजक विद्वान् भी उन्हें तीर्थंकर की मूर्ति के पूजक नहीं मानते हैं। २१. चारण मुनियों ने मूर्ति की स्तुति या वंदना नहीं की। .. २२. द्रौपदी ने मिथ्यात्व दशा में जो प्रतिमा पूजी, वह कामदेव की पाई जाती है। क्योंकि वह निदान प्रभाव से विषयाभिलाषिणी थी, साथ ही सम्यक्त्व रहित भी। श्री गुणसागरसूरि जी आज से ३००-३५० वर्ष पूर्व हुए हैं वे भी इस बात को स्वीकार कर चुके हैं। २३. ज्ञाता का “णमुत्थुणं' प्रक्षिप्त पाठ है। प्राचीन प्रतियों में ऐसा पाठ नहीं है। श्रीमान् हर्षचन्द्रजी महाराज तथा श्री मज्येष्ठमल्लजी महाराज के नाम का उल्लेख केवल जनता को भ्रम में डालने के लिए ही किया गया है। २४. “चैत्य' शब्द का केवल जिन मन्दिर और जिनमूर्ति अर्थ करने वाले शब्द शास्त्र तथा आगमों के विराधक हैं। चैत्य शब्द अनेकार्थवाची है। २५. धर्म के कहे जाने वाले मुख्य अंग ऐसे मूर्ति पूजा के लिए आज्ञा रूप वैधानिक प्रमाण नहीं देकर कथाओं के प्रमाण, वे भी मनः कल्पित ढंग से देने वाले सत्य से सर्वथा दूर हैं। चरितानुवाद का कथन विधिवाद में ग्राह्य नहीं होता। फिर चरितानुवाद के शब्दों और भावों को बिगाड़ कर अपना मतलब साधने का प्रयत्न करना तो अनुचित है ही। २६. स्थापनाचार्य रखने का विधान किसी भी सूत्र में नहीं है, न इसकी आवश्यकता ही है। २७. पूज्य के सिद्धान्त विरुद्ध सिद्धान्तों का भंगकर उल्टी क्रिया करना, पूज्य की पूजा नहीं पर अपमान है। मूर्ति पूजा में प्रभु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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