Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 361
________________ ३१६ निष्कर्ष ******学*********************************** ३८. मुनि श्री मणिलालजी महाराज ने अपने इतिहास में मूर्ति पूजा का समर्थन नहीं किया, किन्तु विरोध तो अवश्य किया है। ३९. मूर्ति पूजा विषयक ग्रन्थ, आगमों के विरुद्ध और वीतराग वचनों के बाधक होने से पूर्ण रूपेण मान्य नहीं हो सकते। ४०. टीका, नियुक्ति आदि मूल की तरह मान्य नहीं हो सकती, क्योंकि इनमें स्खलना भी हो गई है। ४१. साधुमार्गी जैन को, मूर्ति पूजक कहने वाले मतमोह में मतवाले हो रहे हैं। ४२. बत्तीस सूत्रों में मूर्ति पूजा का विधान होने का कहना वंध्या के पुत्र होने का कहने के बराबर है। ४३. साधारण लोगों द्वारा फैली हुई विकृति से मूल सिद्धान्त का कोई सम्बन्ध नहीं है। मुस्लिम तथा क्रिश्चियन आदि समाजों में मूर्ति पूजा विकृत रूप से घुसी है, इन समाजों के मूल सिद्धान्तों में मूर्ति पूजा का खण्डन किया गया है। ४४. मूर्ति पूजक समाज के ग्रन्थों में मूर्ति पूजा के विरुद्ध उल्लेख मौजूद है। ४५. मूर्ति पूजा विषयक उपदेश देना जैन साधु का कर्तव्य नहीं है। इस मूर्ति और मन्दिर के चक्कर में पड़ कर मूर्ति पूजक मुनियों ने चारित्र धर्म की उपेक्षा कर दी है। ४६. सुन्दर मित्र का उपसंहार भी अहंकार पूर्ण और असत्य है। ४७. मूर्ति पूजा से न किसी का आत्म-कल्याण हुआ, न किसी साधु या श्रावक ने इसे अपनाया, आप्त कथित आगमों में अनेकों आत्म-कल्याणकर्ताओं का चरित्र विद्यमान है, किन्तु किसी एक भी चरित्र में ऐसा उल्लेख नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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