Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 340
________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २६५ *京****中字******************************** उक्त अवतरण में साफ बताया गया है कि चैत्य कृत्य, मूर्ति पूजादि आगम सम्मत नहीं, पर पूर्व पुरुषों द्वारा आचरित है। (१२) आगमोद्धारक श्री सागरानन्द सूरिजी दीक्षानुं सुंदर स्वरूप पृ० १४७ में लिखते हैं कि - ___ "श्री जिनेश्वर भगवान् नी पूजा विगेरे नुं फल चारित्र धर्म आराधनना लाखमां अंशे पण नथी आवतुं अने ते थी तेवा पूजा आदि ने छोडीने पण भाव धर्मरूप चारित्र अङ्गिकार करवा मां आवे छे।" (१३) “अध्यात्म प्रकरण' अन्तर्गत “तत्त्वसारोद्धार'' नामक ग्रन्थ में मूर्ति पूजक विद्वान् श्री हुक्ममुनिजी पृ० ४१० से लिखते हैं कि ___ "तीरथ जात्रा व्रत नियम करे ते पण पुन्य तो थाय ते बात पण मिथ्यात छे शामाटे के स्थावर तीरथ नी जात्राएं जवु आवq ते । कांइ धरममां नथी केमके तेने कोइ गुणठाणानी अपेक्षा लागे नही।" शिष्य - स्वामी चोथा गुणठाणानी एकरणी छे, अने तमोपण सम्यक्तद्वार ग्रन्थ मां तथा मन्दिर स्वामीनी ढालो प्रमुख घणा शास्त्रोमां लावेला छो ने तमे इहां ना केम कहो छो।। गुरु - हे मानुभाव अमेजे सम्यक्तद्वार प्रमुख ने विषे लाव्या छिये तेनुं कारण सांभल एक तो कलप वेहेवार, अकालना घणा लोकोनुं मानेतुं माटे, तथा वीजुं कारण के ढूंडीया लोकों बीलकुल प्रतिमा उठावीने बेठा छे, ते आपणा पक्षने मान देखाड़वां वास्ते, तथा त्रीजुं कारण ए के सासन सारु दीसे एटलामाटे अमे लावेला छीए।" अर्थात् - मूर्ति पूजा, यात्रा करना आदि धर्मकार्य नहीं है। न पुण्य कार्य ही है। इसमें किसी गुणस्थान की अपेक्षा भी नहीं है और हमने जो अन्य स्थानों पर मूर्ति पूजादि कृत्यों को चौथे गुणस्थान का कार्य बताया उसका कारण यह है कि प्रथम तो कल्प व्यवहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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