Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
३०५ *本资产* ***本中中中中李**本中李* ******本本********** वादिन्त्रों के सुरिले एवं मनोहर राग में ही मस्त होते हैं। अतएव वादिन्त्रों के साथ होने वाले भजनों में राग मस्ता (मोहनीय) का बन्ध होना सहज है और सबसे अधिक ऐसे कर्मोपार्जन को भी धर्म
और धार्मिक क्रिया कहना यह अज्ञान (ज्ञानावरणीय) का असर और ऐसी श्रद्धा के चलते दुःश्रद्धा (दर्शनावरणीय) होना भी वैसा ही सहज और सरल है।
तात्पर्य यह कि जो लोग मन्दिर मूर्ति के स्थान पर ही धर्म क्रिया होना मानते हैं वे वास्तव में पक्षपोषित हैं। यदि आगम दृष्टि से भी देखा जाय तो धार्मिक क्रिया-जप, तप, स्वाध्याय आदि में कहीं भी मूर्ति का उल्लेख नहीं किया, न किसी मोक्षाभिलाषी ने मूर्ति के सामने धार्मिक क्रियाएँ की। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि - मूर्ति के नहीं मानने से स्थानकवासी समाज धर्म से ही वंचित रह गया? क्या यह अहंकार का ताण्डव नहीं है? सुन्दर मित्र को अपनी साधु भाषा का भी भान नहीं है ??? ऐसा लिखते समय सुन्दर मित्र ने इतना भी विचार नहीं किया कि मेरे इस लेख को कौन मानेगा कि मूर्ति नहीं मानने से स्थानकवासी नवकार नहीं गिन सकते, और नमोत्थुणं नहीं दे सकते, तथा भजन स्तवन नहीं बोल सकते? प्रत्यक्ष सत्य को भी छुपाने वाले इन झूठों के बादशाह को अधिक क्या कहा जाय? वास्तव में यह कहना कोई असत्य नहीं कि सुन्दर मित्र केवल अपनी दिली जलन के कारण ही अंट संट बातें लिख रहे हैं।
आगे देखिये -
(३) मूर्ति नहीं मानने के कारण ही वे लाखों करोड़ों रुपयों की लागत के मन्दिर जो उनके पूर्वजों ने बनवाये, उनके हक से भी वंचित रहे।
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