Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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चैत्य शब्द के अर्थ
लोग केवल अर्हत् प्रतिमा ही अर्थ करते हैं, ऐसे महानुभावों से कहना है कि बन्धु? अरिहंत का स्मारक उनकी जड़ प्रतिमा को मानने के बनिस्बत उन्हीं के वंशज, उन्ही के अनुयायी, उन्हीं प्रभु के आज्ञाराधक जीते जागते उनके शासन को देदीप्यमान करने वाले श्रमण भगवन्तों को क्यों नहीं मानते?ये तो अर्हत्पद प्राप्ति रूप प्रशस्त भार को वहन करने वाले-आर्हत से अर्हत होने के पुरुषार्थी, अन्यको भी अर्हत् बनाने में मुख्य सहायक एवं धर्म के मूर्तिमान स्वरूप हैं। इन्हें अर्हत् चैत्य नहीं मानकर जड़ मूर्ति का ही आग्रह करना कहां तक उचित है? आपके संतोष के लिये निम्न मूर्ति पूजक मान्य प्रमाण दिये जाते हैं।
१. चैत्यं "श्रमणं' (श्री अभयदेवसूरि, ठाणांग टीका) २. “चैत्योद्देशिकस्य-साधून उद्देश्यकृतस्यादि'
(क्षेम कीर्ति सूरि-वृहदकल्प भाष्य उ० ६ के "आहाआधाय कम्मे' गाथा की व्याख्या में)
३. बुद्धं जं बोहतो, अप्पाणं बेइयाइं अण्णं च। पंच महव्वय सुद्धं णाणमयजाण चेदिहरं||८|| चेइयं बंधं मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्पयं तस्य। चेइहरो जिण मग्गे, छक्काय हियं भणियं॥६॥ (दिगम्बर सम्प्रदाय के श्री कुन्दकुन्दाचार्य रचित षट्पाहुड)
४. अजैन कोष “शब्दार्थ पारिजात" के "बौद्ध संन्यासी' अर्थ पर ध्यान दीजिये। जिस तरह बौद्ध साहित्य में चैत्य बौद्ध भिक्षु हैं, उसी तरह जैन साहित्य में जैन साधु चैत्य हो सकते हैं, जिसके लिए उक्त प्रमाण स्पष्ट है।
इस प्रकार चैत्य शब्द का अर्थ प्रकरणानुकूल साधु भी हो
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