Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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मूर्ति पूजा के विरुद्ध प्रमाण सग्रह **********************学学*************
"द्रव्यस्तव जिन पूजा आरंभिक है और भावस्तव-भावपूजा अनारंभिक है। भले ही मेरु पर्वत समान स्वर्ण प्रासाद बनवाये जायें या प्रतिमा बनाई जाय अथवा ध्वजा, दंड, तोरण, कलश, घंटा आदि लगाये जायँ, किन्तु यह क्रिया भावस्तव-मुनिव्रत-के अनंतवें भाग में भी नहीं आ सकती। xxxxx जिन मन्दिर जिन प्रतिमा प्रमुख आरंभिक कार्यों में भावस्तव वाले मुनि को खड़ा भी नहीं रहना चाहिये, यदि खड़े रहें तो अनन्त संसारी बनें। xxxxx जिसने समभाव से कल्याण के लिये दीक्षा ली और बाद में मुनिव्रत को छोड़कर न तो साधु में व न श्रावक में, ऐसा उभय भ्रष्ट नामधारी साधु कहे कि मैं तो तीर्थंकर भगवान् की प्रतिमा की जल, चन्दन, अक्षत, धूप, दीप, फल, नैवेद्य आदि से पूजा करके तीर्थ की स्थापना
१. “१०२ छठु छेद सूत्र ६ महानिशीथ आमूल नष्ट थयु हतु अने तेनो उद्धार हरिभद्र सूरिए को हतो।"
२. श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटा "जैन आगम साहित्य" नामक लेख में लिखते हैं कि “महानिशीथ के उद्धार कर्ताओं में ८ नाम आते हैं वे समकालीन नहीं, तब उन्होंने मिलकर कैसे उद्धार किया? जैन सत्यप्रकाश व० ४ अ० १-२ पृ० (१७३)।
इस सूत्र में एक स्थल पर मूर्ति पूजा का फल विधान भी किया गया है, इस प्रकार परस्पर विरोधी बात से भी यह पाया जाता है कि यह परिवर्तन (फल विधान) चैत्यवाद के युवावस्था में ही हुआ हो तथा और भी अशास्त्रीय विषय (देव द्रव्यादि) के प्रविष्ट हो जाने से साधुमार्गी समाज इसे प्रामाणिक नहीं मानती, हाँ मूर्ति पूजक समाज में तो यह शास्त्र माननीय है। किन्तु मूर्तिपूजक समाज (तथा आगमोदय स०) ने इसे छपाया क्यों नहीं? क्या मूर्ति पूजा के विरुद्ध उल्लेख होने से ही।
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